पड़ताल: चीन को दोस्त मान लेने का अवसरवादी कदम भारत के हित में नहीं
हरिशंकर व्यास
ख़ास तौर पर वे हिंदू निश्चित ही, जो अपने को भारत माता का स्वयंसेवक कहते हैं और जो राष्ट्रवादी होने का दंभ भरते हैं। लेकिन हाँ, जो लोग ‘सर्वभूमि गोपाल’ में पृथ्वी को मनुष्यों का खुला मैदान मानने का मानवतावादी नज़रिया लिए हुए हैं या प्रगतिशीलता के नेहरूवादी, माओवादी, नक्सली विचार में “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का राग अलापते हुए चीन को समानता और सर्वहारा का मक्का समझते हैं, वे राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं रखे जाएँगे। ऐसा इसलिए क्योंकि विचार और वैचारिक स्वतंत्रता में जीना मनुष्य होने का प्राथमिक लक्षण है।
लेकिन जो स्वयंसेवक भारत माता के नाम पर रोहिंग्या या बांग्लादेशियों को समुद्र में फेंकने पर तालियाँ बजाते हैं, या चौबीसों घंटे हिंदू-मुस्लिम राजनीति और पाकिस्तान पर निशाना साधते हुए वोट की राजनीति करते हैं, वे यदि चीन को दोस्त करार दे रहे हैं तो यह राष्ट्र से, मातृभूमि से वह गद्दारी है, जिसकी मिसाल दुनिया में ढूँढे नहीं मिलेगी!
कैसे? तब बताएँ दुनिया में दूसरा कौन सा ऐसा देश है जिसने 1947 की स्वतंत्रता के बाद से भारत की ज़मीन, भारत की अर्थव्यवस्था, भारत की गरिमा, भारत के मान-सम्मान व महत्व को इतना खाया है, जैसे चीन ने खाया है!
यह गहरी और गंभीर बात है! ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदुओं की मोटी बुद्धि में पाकिस्तान ही अकेला शैतान है। लेकिन पाकिस्तान की दुश्मनी विभाजन के घाव और हिंदू-मुस्लिम इतिहास की ग्रंथि से है। फिर पाकिस्तान भारत से लगातार हारा हुआ देश है। भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए हैं। जबकि माओ और कम्युनिस्ट पार्टी का जब से चीनी सभ्यता पर कब्ज़ा है, वह भारत को खाता और उसका अपमान करता रहा है।
उसने न केवल भारत की भूमि पर कब्ज़ा किया है, बल्कि वह डंके की चोट पर लगातार अरुणाचल प्रदेश पर कब्ज़े का मंसूबा बताता है। चीन ने तिब्बत को खाया और भारत का बफ़र खत्म कर दिया। भारतीय सीमा में घुसकर 1962 में अक्साई चिन और लद्दाख की लगभग 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि पर कब्ज़ा कर लिया। (इसे हम भारतीयों ने लगभग भुला दिया है।) वहीं उसने 1963 से पाक-अधिकृत कश्मीर की शक्सगम घाटी/काराकोरम इलाके को भी पाकिस्तान से ले रखा है। और पूरे अरुणाचल प्रदेश के लगभग 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाके को वह अपना बताता है।
यदि मान लें कि राष्ट्रवादी हिंदुओं की याददाश्त इतनी लंबी नहीं है, तब हालिया 7 से 10 मई 2025 (सिर्फ़ चार महीने पहले) का अनुभव तो याद रहना चाहिए। भारत ने ऑपरेशन सिंदूर में जो पाया, उस पर चाहे जितना गौरव करें, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, उनके सुरक्षा सलाहकार डोवाल, विदेश मंत्री जयशंकर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, भारत की सेना तथा हर हिंदू राष्ट्रवादी इस तथ्य-सत्य को भला कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं कि पाकिस्तानी सेना के पीछे तब चीन सक्रिय था। भारत का एक लड़ाकू विमान तबाह हुआ हो या पाँच-सात विमान, लेकिन सबके पीछे तो चीन के पाकिस्तान को दिए गए लड़ाकू विमान, मिसाइलें, एयर डिफेंस व सेटेलाइट आदि का सपोर्ट था। (मतलब चीन ने सेटेलाइट निगरानी से भारत की कार्रवाई की पल-पल की लाइव खुफिया जानकारियाँ पाकिस्तान को दीं।)
पिछले 78 वर्षों से चीन लगातार पाकिस्तान का संरक्षक है। वह भारत के खिलाफ़ पाकिस्तानी आतंकियों की हरकतों का समर्थक है। 2009-2019 के बीच यूएन प्रतिबंध सूचीकरण की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सूची में आतंकी मसूद अज़हर को यूएनएससी 1267 पर सूचीबद्ध करने के प्रस्तावों पर चीन ने बार-बार “तकनीकी बाधा” डाली। बहुत मुश्किल से वह मई 2019 में आतंकी घोषित हुआ। हम भारतीय भूल गए हैं, लेकिन पिछले 78 वर्षों में चीन ने भारत के कई अलगाववादी-उग्रवादी (नगा, मिजो, मणिपुर और उल्फा) संगठनों को मदद दी है। 1967 से 1976 के बीच चीन ने नगा अलगाववादियों को म्यांमार के रास्ते युन्नान के कैंपों में रखकर उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया। चीनी हथियारों से लैस करके नागालैंड में अशांति-हिंसा बनाए रखी। ऐसे ही 1960-80 के दशक में मणिपुर की पीएलए को काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी की मदद से म्यांमार में चीन ट्रेनिंग दिलाता रहा। 1980-2000 के दशकों में उल्फा के लड़ाकों को मदद करता रहा।
यह भी याद रखना चाहिए कि 1962 की लड़ाई में चीन शेष भारत से उत्तर-पूर्व को काटने की सीमा तक आगे बढ़ गया था। हाल के सालों में भी सिक्किम-भूटान की सीमा क्षेत्रों में जिस तरह वह इंफ्रास्ट्रक्चर बना रहा है, और डोकलाम गतिरोध के समय उसकी जो रणनीति ज़ाहिर हुई, तो वह भविष्य में नार्थ-ईस्ट का उसके रोडमैप का संकेत ही था।
दरअसल माओ के समय से ही चीन ने भारत को उपहास का एक मामूली देश माना हुआ है। माओत्से तुंग ने 1973 में हेनरी किसिंजर से भारत का मज़ाक उड़ाते हुए कहा था कि भारत “एक गाय है जिसका शरीर बड़ा है पर ताक़त कम है, और जो अब भी बैलगाड़ी खींच रहा है।” यह वाक्य चीनी कम्युनिस्ट शासन की उस मानसिकता का आईना था जो भारत को विशाल जनसंख्या और आकार के बावजूद कमज़ोर, धीमा और अप्रभावी बताता है। चीन की हमेशा रणनीति भारत को बराबरी का दर्जा नहीं देने की रही है।
देंग शियाओपिंग ने 1980 के दशक में राजीव गांधी से मुलाक़ात में यह कहा था कि भारत और चीन को नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए। मतलब वह चीन की श्रेष्ठता को मान रहे थे। जियांग ज़ेमिन और हु जिनताओ के दौर में चीनी थिंक टैंक भारत को लगातार दोयम दर्जे की “द्वितीयक शक्ति” बताते रहे, जिसमें न औद्योगिक सामर्थ्य है और न रणनीतिक गहराई। शी जिनपिंग के समय में एक ही रणनीति है: भारत को अपना बाज़ार बनाते जाओ। भारत उस पर निर्भर हो। उसकी आत्मनिर्भरता खत्म हो। उसे दक्षिण एशिया के पड़ोसियों में इतना बेअसर बना दो कि विश्व राजनीति की जगह वह पाकिस्तान के ही रोने में फँसा रहे। दुनिया मान ले कि भारत का न दीन-ईमान है, न कोई उसके साथ खड़ा हो और न वह चीन से आँखें मिलाकर उसे चुनौती देने की हैसियत लिए हुए हो। 2020 के गलवान की तनातनी और हाल के ऑपरेशन सिंदूर से उसने जान लिया है कि भारत में क्या दमखम है।
चीन के लिए डोनाल्ड ट्रंप का भारत से पंगा वह अभूतपूर्व अवसर है, जिससे वह अब दुनिया को दिखला रहा है कि भारत अवसरवादी है। सोचें, भारत कैसी कूटनीति कर रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी जापान जाकर दोस्ती की बातें कर रहे हैं और वहाँ से चीन जाकर ड्रैगन-हाथी की दोस्ती की बात कर रहे हैं, जबकि जापान राष्ट्र की दुश्मनी का एकमेव देश चीन है!
तो, कौन दोस्त है और कौन दुश्मन है, जिस देश को इसका भी ख्याल नहीं है, उसे तो दुनिया यही कहेगी कि वह अवसरवादी ही नहीं, बल्कि आत्मघाती, अपने पाँवों पर खुद कुल्हाड़ी मारने वाला देश भी है। चीन का बाज़ार बनकर भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को बर्बाद किया है। फिलहाल चीन भारत से व्यापार में हर साल कोई सौ अरब डॉलर का मुनाफा कमा रहा है। व्यापार घाटा लगभग एक सौ अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। भारत उपनिवेशकाल की वैसी ही स्थिति में है, जैसे ब्रिटेन भारत से कच्चा माल लेकर तैयार माल बनाकर बेचा करता था। हिसाब से ब्रितानी तो फिर भी भारत से कच्चा माल ले जाते थे, जबकि अब चीन को भारत कच्चा माल लगभग नहीं के बराबर देता है। भारत बुनियादी तौर पर उसके निर्मित सामान का ख़रीदार देश है। उस पर आश्रित देश है। हाल में रेयर अर्थ खनिज में भारत की चीन पर निर्भरता चौंकाने वाली थी।
बहरहाल, पते की बात यह है कि साँप कभी दोस्त नहीं हो सकता। आग उगलता दैत्य समान ड्रैगन कभी हाथी का भारत की भीड़ का सहोदर नहीं हो सकता। जो ऐसा मानते हैं कि चीन दोस्त है, संकट का साथी है, वे भारत राष्ट्र-राज्य को खाई में धकेल रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

