पड़ताल: क्या सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का कोई और कानून भी आ सकता है?
अजीत द्विवेदी
भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुछ तर्कसंगत पाबंदियां लगाने का प्रावधान है। संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में इसकी व्याख्या की गई है। सरकारें समय-समय पर अपने हिसाब से इसकी व्याख्या करती रही हैं और बोलने या किसी भी रूप में खुद को अभिव्यक्त करने की आज़ादी को नियंत्रित करने का प्रयास करती रही हैं। हर बार जब सरकारें ऐसा प्रयास करती हैं, तो इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई जाती है, लेकिन अंततः सरकारें कामयाब होती हैं।
इसी वजह से धीरे-धीरे वाक और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गई हैं। नए डिजिटल युग में, जब लोगों को अभिव्यक्ति के नए प्लेटफ़ॉर्म मिल गए हैं, तब पाबंदियों की ज़रूरत ज़्यादा महसूस की जा रही है और लगाई भी जा रही हैं। अब कुछ और नई पाबंदियों की आहट सुनाई दे रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए सरकार से कहा है कि वह डिजिटल मंचों पर होने वाली अभिव्यक्तियों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए। यह मामला एक खास तरह की बीमारी से ग्रस्त एक व्यक्ति का मज़ाक उड़ाने से जुड़ा हुआ है। कॉमेडी के नाम पर किसी व्यक्ति की शारीरिक कमी का मज़ाक उड़ाना किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य से भारत में कॉमेडी का यह रूप आसानी से स्वीकार्य होता है।
महिलाओं, कम लंबाई वाले, मोटे लोगों या शारीरिक कमियों का मज़ाक उड़ाना स्टैंडअप कॉमेडी में आम है। ऐसे ही एक मामले की सुनवाई करते हुए 25 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने सरकार से कहा कि वह नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिशएन (एनबीडीए) से सलाह-मशविरा करके सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करे।
असल में, एक शारीरिक स्थिति होती है जिसे स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (एसएमए) कहते हैं, जो एक आनुवंशिक डिसऑर्डर है। एक गैर-सरकारी संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी कि कई स्टैंडअप कॉमेडियन्स ने इस बीमारी से ग्रस्त लोगों का मज़ाक उड़ाया है। इसमें समय रैना, विपुल गोयल, बलराज परमजीत सिंह घई, सोनाली ठक्कर और निशांत जगदीश तंवर का नाम लिया गया था। सुनवाई के दौरान सभी पक्षों ने इसकी आलोचना की। लेकिन सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि जस्टिस बागची ने ‘कॉमर्शियल स्पीच’ का एक जुमला बोला और कहा कि जब आप अभिव्यक्ति की आज़ादी का व्यावसायीकरण करते हैं, तो आपको ध्यान रखना चाहिए कि आपकी बात समाज के किसी हिस्से की भावना को आहत न करे।
सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने इस पर तुरंत कहा कि सरकार इसे नियंत्रित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करेगी। इस पर अदालत ने कहा कि जो भी दिशानिर्देश बनाया जाए, वह सिर्फ़ किसी खास घटनाक्रम से पैदा हुए सवालों को ही संबोधित न करे, बल्कि नई तकनीक और अभिव्यक्ति के नए उभरते मंचों की वजह से जो स्थितियां पैदा हो रही हैं, उनको भी ध्यान में रखे।
ज़ाहिर है, अदालत चाहती है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर कंटेंट को नियंत्रित करने के लिए एक समग्र दिशानिर्देश जारी हो। सर्वोच्च अदालत का यह आदेश सरकार के हाथ में एक नया हथियार दे सकता है। ध्यान रहे कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 (2) के ज़रिए नियंत्रण के जो उपाय बताए गए हैं, उनके अलावा आईटी एक्ट 2000 के आईटी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) रूल्स 2021 के ज़रिए भी सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के उपाय किए गए हैं।
इसमें कहा गया है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स किसी भी तरह का सामाजिक विद्वेष फैलाने वाला या अश्लील कंटेंट प्रसारित नहीं होने देंगे। अगर इस कानून को सही तरीके से लागू किया जाए, तो किसी अतिरिक्त कानून की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने जिस तत्परता से दिशानिर्देश बनाने की सहमति दी, उससे ऐसा लग रहा है कि सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का कोई और कानून भी आ सकता है।
सर्वोच्च अदालत के आदेश में एक और बात विरोधाभासी दिखती है, जो ‘कॉमर्शियल स्पीच’ से जुड़ी है। अगर किसी स्टैंडअप कॉमेडियन के एक्ट को इस आधार पर ‘कॉमर्शियल स्पीच’ माना जाएगा कि वह उससे पैसे कमा रहा है, तो फिर किसी पत्रकार, अभिनेता या लेखक को इससे कैसे बाहर रखा जा सकेगा? ध्यान रहे कि पत्रकार और लेखक भी अपने लेखन से पैसा कमाते हैं और अभिनेता पैसे के लिए ही फ़िल्मों या टेलीविज़न में काम करते हैं। निर्माता-निर्देशक भी पैसे कमाने के लिए ही फ़िल्में बनाते हैं। अगर ‘कॉमर्शियल स्पीच’ का दायरा बढ़ा, तो वाक और अभिव्यक्ति का हर स्वरूप और हर प्लेटफ़ॉर्म इसके दायरे में आ जाएगा। यह सिर्फ़ सोशल मीडिया तक नहीं रुकेगा, बल्कि अख़बार, पत्रिकाएं, फ़िल्म, टेलीविज़न, सब इसके दायरे में आएंगे। यहां तक कि नेता के भाषण को भी इसके दायरे में लाया जा सकता है, क्योंकि उसका भी अंतिम लक्ष्य लाभ का पद हासिल करना होता है।
यह विरोधाभासी इसलिए है, क्योंकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के अपने फ़ैसले अलग-अलग रहे हैं। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत सरकार मामले (1959) में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि विज्ञापन भी एक तरह की अभिव्यक्ति का माध्यम है, लेकिन जब इसमें व्यापार का पहलू शामिल हो जाता है, तो यह विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आता। हालांकि, बाद में टाटा प्रेस बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड के केस (1995) में माना कि ‘कॉमर्शियल स्पीच’ को सिर्फ़ इस आधार पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे से बाहर नहीं किया जा सकता कि कोई लाभ कमाने वाली कंपनी इसे जारी कर रही है। बाद में एक और मामले में अदालत ने विज्ञापनों में सामाजिक सद्भाव और हितों का ध्यान रखने की सलाह दी थी।
लेकिन ऐसा लगता है कि इस मामले में स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है। अगर इस पर समग्रता से विचार नहीं किया गया, तो सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को आधार बनाकर ऐसे दिशानिर्देश जारी कर सकती है, जिसके दम पर किसी भी स्पीच को ‘कॉमर्शियल’ बताया जा सकता है, उस पर रोक लगाई जा सकती है और उससे जुड़े लोगों को सज़ा दी जा सकती है। इसलिए इस मामले में स्पष्टता की ज़रूरत है। साथ ही यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि भारत में पहले से ही बहुत सारे कानून हैं। नए कानून की बजाय पुराने कानूनों, नियमों और दिशानिर्देशों को प्रभावी तरीके से लागू करने के उपाय करने चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

