नज़रिया: हकीकत तो यह है कि हवाई जहाज़ में चलने वाले हवाई चप्पल पर आ गए

नज़रिया: हकीकत तो यह है कि हवाई जहाज़ में चलने वाले हवाई चप्पल पर आ गए
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हरिशंकर व्यास
प्रधानमंत्री मोदी ने सपना दिखाया था कि हवाई चप्पल वाला भी हवाई जहाज़ में उड़े। और हुआ क्या? वे खुद तो साढ़े आठ हज़ार करोड़ रुपए के हवाई जहाज़ में उड़ने लगे, लेकिन दूसरी तरफ़ हकीकत यह है कि हवाई चप्पल वाला तो हवाई जहाज़ में नहीं बैठ सका, पर जो हवाई जहाज़ में चलते थे, वे भी हवाई चप्पल पर आ गए। एक के बाद एक बड़ी विमानन कंपनियाँ बंद हो गईं। जेट और गो एयर जैसी बड़ी कंपनियाँ बंद हुईं। उनके जहाज़ खड़े हो गए। अब पूरे विमानन उद्योग पर दो कंपनियों का एकाधिकार है। ये कंपनियाँ मनमाने तरीके से रूट और किराया तय करती हैं। यात्रियों की सुरक्षा का कोई उपाय किसी नियम के ज़रिए नहीं है। सब कुछ एल्गोरिथम पर आधारित है।
अगर किसी ने एक रूट पर किराया दो बार सर्च कर लिया, तो किराया डेढ़ गुना बढ़ जाएगा। अगर किसी ने एक बार में रिटर्न टिकट लेने की बजाय एक तरफ़ की टिकट ली है, तो वापसी की टिकट इतनी महंगी हो जाएगी कि पसीने छूट जाएँगे। लगभग सभी विमानन सेवाएँ ‘सस्ती विमान सेवा’ के रूप में चल रही हैं, लेकिन उनका किराया प्रीमियम से कम नहीं होता है। अगर कुछ खाना है, तो वह चार गुना कीमत पर खरीदना पड़ेगा। प्रीमियम क्लास में भी ग्राहक को खिचड़ी सर्व की जा रही है! हवाई अड्डों पर हर चीज़ की कीमत किसी अच्छे मॉल की तुलना में भी तीन-चार गुना है। पार्किंग के रेट मनमाने हैं। बैगेज पर भी पाबंदियाँ बढ़ती जा रही हैं। किसी भी स्तर पर यात्रियों के हितों का ध्यान रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। तमाम सरकारी एजेंसियाँ विमानन कंपनियों के हिसाब से काम कर रही हैं, और उनका हिसाब है यात्रियों को कितनी तरह से लूटना।
ऐसा नहीं है कि निजी कंपनियाँ विमान चला रही हैं, इसलिए वहाँ समस्या है। ट्रेन तो सरकार खुद भी चला रही है, लेकिन वहाँ और भी बुरी दशा है। सरकार का ज़ोर प्रीमियम ट्रेन चलाने पर है, लेकिन पता नहीं कैसे उसे दिख नहीं रहा है कि प्रीमियम ट्रेनें खाली चल रही हैं। अब वंदे भारत और तेजस की चर्चा नहीं है। बिहार चुनाव है, तो अमृत भारत ट्रेन की चर्चा है। पिछले दिनों रेलवे ने तत्काल टिकट के नियमों में बदलाव किया कि पहले आधे घंटे तक एजेंट टिकट नहीं ले सकेंगे। आम लोगों को ही टिकट मिलेगी, जिनके आधार वेरिफाई किए जाएँगे। लेकिन उसका क्या फ़ायदा हुआ? पहले आधे घंटे आईआरसीटीसी की साइट ही हैंग हो जाती है या आधार ही वेरिफाई नहीं हो पाता है। यह सामान्य टिकटों में भी हो रहा है। महीनों पहले लोग टिकट की बुकिंग कराते हैं, लेकिन जिस दिन बुकिंग शुरू होती है, उस दिन ज़्यादातर सामान्य यात्रियों को आईआरसीटीसी की साइट पर बुकिंग में समस्या आती है और जब वे दोबारा सिस्टम रिफ्रेश करके बुकिंग के लिए जाते हैं, तब तक वेटिंग आने लगती है।
ऐसा लाखों लोगों के साथ होता है। ऊपर से जब वेटिंग टिकट कैंसिल कराएँ, तो पैसे अलग से कट जाते हैं। यानी टिकट भी नहीं मिली और पैसे भी कट गए। इसके बाद ज़्यादा पैसे देकर एजेंट से टिकट खरीदने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। ट्रेनों में हवाई जहाज़ की तरह डायनेमिक या फ्लेक्सी फ़ेयर का कॉन्सेप्ट लागू कर दिया है, जिसके बाद एक हज़ार रुपये की टिकट लोगों को दो-ढाई हज़ार में मिलती है। इतनी महंगी टिकट लेने के बाद भी यात्रा पहले जैसी ही है। लेकिन रेल मंत्री की प्रेस कॉन्फ़्रेंस देखें, तो लगेगा कि सन 1853 में पहली ट्रेन चलने से भी बड़ी क्रांति पिछले 10 साल में हुई है।
सड़क परिवहन में सबसे ज़्यादा मनभावन हरियाली यानी क्रांति का दावा है। हर जगह एक्सप्रेस-वे की चर्चा है। पेट्रोल में 20 फ़ीसदी इथेनॉल मिलाने का जो लक्ष्य 2030 तक पूरा होना था, वह 2025 में ही पूरा हो गया। भले ही लोग चिल्ला रहे हैं कि इथेनॉल मिलाने से गाड़ियों के इंजन पर असर हो रहा है और माइलेज भी कम हो रही है, लेकिन सरकार कान में तेल डालकर बैठी है। सबसे दिलचस्प यह है कि कीमत कम करने के लिए इथेनॉल मिलाना शुरू हुआ था, लेकिन कीमत कम होने की बजाय अब तक के उच्चतम स्तर पर है। यानी कीमत कम नहीं हुई, उलटे माइलेज कम होने से खर्च बढ़ गया और गाड़ियों के इंजन समय से पहले खराब होने लगे।
इन दिनों आयकर रिटर्न जल्दी दाखिल करने की रोज़ अपील जारी की जा रही है। कहा जा रहा है कि आप टैक्स देंगे तो हाईवे और एक्सप्रेस-वे बनेंगे, देश के विकास में आपका योगदान होगा। लेकिन आयकर देने वाली एक मुर्गी छह बार हलाल हो रही है। एक बार आपने अपनी आय पर टैक्स दिया। फिर उस आय से गाड़ी खरीदी, तो उस पर 28 फ़ीसदी टैक्स दिया। उस गाड़ी का रजिस्ट्रेशन कराया, तो वन टाइम रोड टैक्स दिया। गाड़ी का बीमा लिया, तो उस पर टैक्स दिया, जो हर साल देना है। उसके बाद गाड़ी में पेट्रोल या डीज़ल डलवाया, तो उस पर 43 फ़ीसदी तक टैक्स दिया और ऊपर से प्रति लीटर एक रुपए का इंफ़्रास्ट्रक्चर सेस भी चुकाया। इतना करने के बाद गाड़ी लेकर सड़क पर निकले, तो आपका पाला टोल टैक्स से पड़ेगा। दिल्ली से लखनऊ की यात्रा में एक तरफ़ का टोल नौ सौ रुपए के करीब है। सोचें, आम आदमी के टैक्स से बनी सड़क पर चलने के लिए छह तरह के टैक्स अलग से देने होते हैं। सोचें, दुनिया में ऐसी हरियाली कहाँ मिलेगी? सड़क परिवहन का मतलब अब निजी गाड़ियों से यात्रा ही हो गया है, क्योंकि ज़्यादातर राज्यों में सार्वजनिक सड़क परिवहन व्यवस्था बहुत ही लचर हुई पड़ी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Parvatanchal

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