नज़रिया: चीन से रिश्ते सुधारने के लिए देश में राष्ट्रीय बहस की आवश्यकता
अजय दीक्षित
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ वॉर के कारण दुनिया के कई देश अपनी विदेश व्यापार नीति का पुनरीक्षण कर रहे हैं। भारत भी ऐसा ही कर रहा है। भारत ने अमेरिका के विकल्प के तौर पर रूस और चीन को चुना है। भारत के रणनीतिकार जानते हैं कि रूस तो भारत का पुराना भागीदार है और भारत उससे सहजता से व्यापार कर रहा है। इसके अलावा, अमेरिका से रिश्ते खराब होने का एक कारण रूस से कच्चे तेल की खरीद भी है, वह भी विश्व में सबसे अधिक मात्रा में और अपनी ज़रूरतों का चालीस प्रतिशत। लेकिन चीन के मामले में ऐसा नहीं मान सकते हैं। चीन से रिश्ते सुधारने से पहले भारत में राष्ट्रीय स्तर पर बहस होनी चाहिए। इसके लिए संसद का विशेष सत्र भी बुलाया जा सकता है। सरकार को फिक्की और अन्य संस्थाओं में विशेष सेमिनार आयोजित करने चाहिए, क्योंकि 1962 के बाद चीन से रिश्ते सुधारने का यह पहला मौका है। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है।
चीन के साथ हमारे कई मुद्दों पर गंभीर विवाद हैं, जैसे गलवान, डोकलाम, अरुणाचल प्रदेश, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तिब्बत, ताइवान और दलाई लामा को लेकर। विदेश नीति के जानकार मानते हैं कि चीन हमेशा पाकिस्तान की मदद करता है। अभी चीन के साथ हमारा द्विपक्षीय व्यापार लगभग 2 लाख करोड़ का है, जिसमें हमें 500 करोड़ का व्यापार घाटा है। हालांकि, चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। चीन प्रति वर्ष 477 लाख करोड़ रुपए का वैश्विक व्यापार करता है। चीन बड़े पैमाने पर तीसरी दुनिया के देशों को रक्षा उपकरण, जैसे हेलिकॉप्टर, मिसाइल, ड्रोन, राइफल, और फाइटर जेट बेचता है।
भारत को विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर बहस की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि संबंधों की रूपरेखा दीर्घकालिक होती है और भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जहाँ सरकारों में परिवर्तन होता है और नए लोग ज़िम्मेदारी लेते हैं।
चीन हमेशा से एक जटिल विषय रहा है क्योंकि एशिया में चीन एकमात्र साम्राज्यवादी देश है। वह अभी भी मध्ययुगीन विचारों से जुड़ा है, फिर भी उन्नतशील और आधुनिक भी है। लेकिन वह कभी विश्वसनीय नहीं रहा है। यद्यपि अमेरिका का व्यवहार सभी देशों के साथ कम या ज्यादा लोकतांत्रिक ही रहा है, और डोनाल्ड ट्रम्प के बचकाने निर्णयों को छोड़ दें तो वह विश्वसनीय रहा है। 1990 से पहले, जब भारत तत्कालीन सोवियत संघ (USSR) के नज़दीक था, तब भी अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन, जॉर्ज बुश, निक्सन, और रूजवेल्ट ने भारत को एक-आध को छोड़कर धमकाने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि अमेरिका ने कभी वीटो पावर का भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया।
भारत सरकार को चीन के विषय में सभी राजनीतिक दलों, विशेषकर कांग्रेस पार्टी, को विश्वास में लेना चाहिए।
राष्ट्रीय बहस इस संदर्भ में होनी चाहिए कि भारत चीन से क्या चाहता है और भारत किस हद तक पाकिस्तान के मसले पर पीछे हट सकता है, क्योंकि आज नहीं तो कल पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे को चीन की आड़ में ज़रूर उठाएगा, जबकि भारत अब कश्मीर के मुद्दे पर बिल्कुल भी बात नहीं करेगा। ऐसे कई मुद्दे हैं, और यह भी हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार भी इस पर भिन्न हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीन दौरा कितना सही है, इसका परिणाम आना अभी बाकी है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि चीन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

