आकलन: बिहार में चुनाव वास्तविक नहीं, भावनात्मक मुद्दों पर लड़ा जाएगा

आकलन: बिहार में चुनाव वास्तविक नहीं, भावनात्मक मुद्दों पर लड़ा जाएगा
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हरिशंकर व्यास
स बार ऐसा लग रहा था बिहार में चुनाव वास्तविक मुद्दों पर लड़ा जाएगा। विकास से जुड़े बुनियादी सवाल उठेंगे क्योंकि प्रशांत किशोर ने दो साल की पदयात्रा से लोगों को जागृत किया था। लोगों को ललकारा था कि वे अपने बच्चों के चेहरे देख कर वोट करें। प्रशांत ने मुस्लिम बस्तियों में जाकर उनको ललकारा कि वे भाजपा के भय से राजद और कांग्रेस का बंधुआ बने रहेंगे तो उसी दुर्दशा की हालत में रहेंगे, जिसमें अभी हैं। यादवों को भी ललकारा कि वे कब तक जाति के नाम पर लालू परिवार की गुलामी करेंगे। शिक्षा, स्वास्थ्य, पलायन, रोजगार आदि की बातें उन्होंने लोगों के दिल दिमाग में बैठाई थी। लेकिन पिछले तीन महीने में पूरा चुनाव घूम फिर कर मुफ्त की चीजों, सेवाओं के साथ साथ जाति, धर्म, घुसपैठिया और इसी तरह के कुछ अन्य भावनात्मक मुद्दों पर सिमट गया है।
असल में पिछले 20 वर्षों में या उससे पहले लालू प्रसाद व राबड़ी देवी के शासन के 15 वर्षों को जोड़ लें तो पिछले 35 साल की मंडल की राजनीति में बिहार में बुनियादी रूप से कुछ नहीं बदला है। विकास की सबसे बुनियादी कसौटी बीएसपी यानी बिजली, सड़क और पानी के अलावा बिहार में कुछ नहीं हुआ। एनडीए के नेता जिसे जंगल राज बताते हैं उस समय जो फैक्टरियां बंद हुईं वह नीतीश के 20 साल के राज में चालू नहीं हो सकीं। जो स्कूल बंद हुए या कॉलेजों की हालत जर्जर हुई, अच्छे शिक्षकों और डॉक्टरों की कमी हुई वह अब भी बनी हुई है। अस्पताल और मेडिकल कॉलेज नहीं खुल रहे हैं। डेढ़ दशक पहले मंजूर हुए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के भवन अभी तक नहीं बन पाए हैं।
अगर लालू प्रसाद के राज में अपहरण उद्योग की कहानियां अमेरिका की पत्रिकाओं में छपती थीं तो आज जमीन, बालू और शराब के कारोबार की कहानियां प्रचलन में हैं। झारखंड का बंटवारा हुआ था तो कहा गया था बिहार में सिर्फ लालू और बालू बचे हैं। 25 साल बाद भी यह हकीकत है कि लालू हैं और बालू है। बालू के अवैध कारोबार से राजनेता और अपराधी दोनों पल रहे हैं। नीतीश कुमार ने 2016 में शराबबंदी की और उसके बाद पिछले नौ साल में अवैध शराब का कारोबार इतना फला फूला है कि बिहार में एक समानांतर अर्थव्यवस्था बन गई है। शराब के कारोबार और सिंडिकेट को बचाने के लिए अपराधी गिरोहों में खूनखराबा है। शराब और बालू के पैसे के निवेश का एकमात्र रास्ता जमीन की खरीद है। सो, जमीन के दाम अनापशनाप बढ़े हैं और उसके साथ ही जमीन विवाद से जुड़े आपराधिक मामले भी।
उद्योग के नाम पर इथेनॉल की कुछ फैक्टरियां लगी हैं। नीतीश के 20 साल के राज के बाद पहली बार उद्योग और निवेश की नीति आई है। पहली बार निजी निवेश की कुछ परियोजनाएं बिहार में आने की चर्चा है। इसका असर आने वाले सालों में क्या होता है यह देखने वाली बात होगी। अभी स्थिति यह है कि पहले की तरह ही लोग अवसर की तलाश में बिहार छोड़ कर देश भर के राज्यों में जा रहे हैं। जो सक्षम हैं वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए दूसरे राज्यों में भेज रहे हैं और जो सक्षम नहीं हैं उनके अनपढ़ या प्राथमिक शिक्षा लिए बच्चे देश भर में मजदूरी कर रहे हैं और होली, दिवाली, छठ पर भेड़ बकरियों की तरह ट्रेनों में लद कर बिहार जा रहे हैं। बिहार एक समय आईएएस, आईपीएस की फैक्टरी कहा जाता था। लेकिन उस फैक्टरी के बंद हुए दशकों हो गए। अभी रिटायर हो रहे भारत सरकार के सचिवों की बड़ी जमात बिहार के लोगों की है, जिन्होंने पटना साइंस कॉलेज, पटना वीमेंस कॉलेज, एएन या बीएन कॉलेज से पढ़ाई की है। लेकिन अब इन कॉलेजों की हालत ऐसी है कि न पढ़ने वाले हैं और न पढ़ाने वाले। चाहे लालू प्रसाद का राज रहा या नीतीश कुमार का दोनों सामाजिक समीकरण साध कर चुनाव जीतने की राजनीति करते रहे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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