खरी-खरी: क्या भारत ने ऐसा कोई संकेत दिया कि उसका ‘जैसे को तैसा जवाब’ देने का इरादा है?
हरिशंकर व्यास
भारत गजब की मायावी विश्वगुरूता में है! गुजरे दिनों पूरी दुनिया में डोनाल्ड ए से उथलपुथल हुई। सभी देश ट्रंप प्रशासन से बेइज्जत हुए। ट्रंप ने बड़ी इकॉनोमी में चीन के बाद भारत पर 26 प्रतिशत टैरिफ लगा उसे नंबर दो पर रखा। मगर हममें इसकी कोई प्रतिक्रिया, कोई विचार नहीं हुआ।
इस खामोख्याली में रहे कि ट्रंप ने हमें उतना नहीं मारा जितना चीन को और उसके साथ विएतनाम, कंपूचिया को मारा! हमें औकात दिखाई बावजूद इसके हम गौरवान्वित थे! चीन ने बतौर रियल महाशक्ति के अमेरिका से कहा- ‘हम चुनौती के आगे झुकने वाले नहीं! हम आखिर तक लड़ेंगे।‘ और वैश्विक वित्तीय हल्कों में अफवाह है कि अमेरिकी ट्रेजरी के दीर्घकालीन बांड्स की बाजार में धड़ाधड़ बिक्री (कोई 29 ट्रिलियन डालर के) हुई तो ट्रंप के हाथ पांव फूले।
उन्होंने चीन को छोड़ सभी देशों पर लगे टैरिफ को 9 जुलाई तक टाला। सोचें, कौन झुका, कौन घबराया? डोनाल्ड ट्रंप। चीन में इतना सोचना-विचारना, हिम्मत और दीर्घकालीन तैयारी है जिससे वह हर तरह की तैयारी में है। वैश्विक वित्तीय बाजार में निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित-खरा औजार अमेरिकी ट्रेजरी के बांड्स माने जाते हैं। और ये सर्वाधिक किसके पास हैं? जापान नंबर एक पर है और उसके बाद चीन के पास 761 बिलियन डालर के अमेरिकी बांड्स हैं। यदि चीन अकेले अमेरिकी बांड्स बेचने शुरू करे व जापान भी इसी रास्ते पर चल पड़े तो अमेरिका की वित्तीय ताकत कुछ ही घंटों में राख में बदल जाएगी।
तभी ट्रंप के हाथ-पांव फूले। चीन को अपना दुश्मन चिन्हित कर बाकी देशों पर अतिरिक्त टैरिफ रोका। कहते हैं जापान ने भी कुछ अमेरिकी बांड्स निकाले। उधर योरोपीय संघ के 27 देशों में से 26 देशों ने अमेरिका के खिलाफ टैरिफ की तैयारियों पर सहमति दी। कनाडा और मेक्सिको ने बदले के कदम उठाए। पूरी तरह निर्यात पर टिके दक्षिण कोरिया, विएतनाम, कंपूचिया ने अपने प्रतिनिधी वाशिगंटन दौड़ा कर देश के व्यापार को बचाने की । कोशिशें कीं
और भारत ने क्या किया? कुछ नहीं! मानों हम न तीन में और न पांच में। ठीक भी बात है। विश्व व्यापार में भारत का कुल हिस्सा सिर्फ 2.4 प्रतिशत है। मगर गड़बड़ यह है कि अमेरिका ही सबसे बड़ा वह देश है जिसे हम बेचते ज्यादा हैं और खरीदते कम हैं। हमें लाभ अमेरिका से ही है। इसलिए ट्रंप की चिढ़ है कि भारत जैसे देश से भी हम घाटे में हैं।
तभी ट्रंप ने नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान दबाव बना कर बजट से अमेरिकी उत्पादनों पर ड्यूटी घटवाई। फिर भी 26 प्रतिशत टैरिफ लगाए। मगर भारत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। यह रुख था कि बात करेंगे। हम कर ही क्या सकते हैं! भारत ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वह भी जैसे को तैसा जवाब देने का इरादा रखता है।
इसलिए तय मानें कि डोनाल्ड ट्रंप भारत से कोई रियायत नहीं करेंगे। जुलाई में 26 फीसदी टैरिफ के अलावा वे भारत के फार्मास्यूटिकल सेक्टर की अलग कमर तोड़ेंगे। सो विदेश व्यापार की वास्तविकता से भी पता चलता है कि भारत न अपने बाजार में चीन की आर्थिक लूट को रोकने के विचार में समर्थ है और न अमेरिका या विश्व व्यापार में कोई ठोस, बराबरी का रिश्ता बना सकने का रोडमैप है।
इसलिए कि इस सबके लिए सोच-विचार ऊका दिमाग है कहां? बस, एक ही इलहाम, एक ही ख्याल है कि हम विश्वगुरू! सोचें, पिछले दस वर्षों में दुनिया की बड़ी घटनाओं, विकास और ट्रेंड में क्या-क्या हुआ है? ट्रंप के व्यापार युद्ध से पहले, इजराइल-हमास युद्ध, रूस-यूक्रेन युद्ध है। चीन ने भारत की सीमा पर दादागिरी दिखाई। पता नहीं भारत का कितना इलाका कब्जाया। अफगानिस्तान में तालिबानी वर्चस्वता बनी। दक्षिण एसिया के हर देश में चीन का दबदबा फैला। भारत में भी जलवायु परिवर्तन और मौसम की जानलेवा मार का ट्रेंड है। वैश्विक पैमाने पर आर्टिफिशियल बुद्धिमत्ता की छलांगें, स्पेस दौड़, मेटावर्स-एआरवीआर, क्रिप्टोकरेंसी में क्या-क्या नहीं हुआ है!
जबकि भारत की थिंकिंग, नैरेटिव, प्राथमिकता क्या है? हमें फ्री बांटने, रैवड़ियों की व्यवस्था बनानी है। हमें धर्म और जाति से चुनाव जीतना है। हमारी भीड़ हमारी ताकत है। भीड़ की भक्ति, भोंडापन देश का विकास है। हिंदू-मुस्लिम की मुर्गा लड़ाई हमारे राष्ट्रीय एकीकरण और राष्ट्र निर्माण का रास्ता है। डोनाल्ड़ ट्रंप ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ के फितूर में सभी देशों को इस सोच-विचार के लिए मजबूर किया कि तब हमारा क्या?
हम कैसे अपने आपको बदलें? क्या नया सोचें? विश्व की तमाम तरह की व्यवस्थाओं के सिनेरियों में ब्रिटेन, योरोपीय संघ, जापान, चीन, आस्ट्रेलिया आदि लगभग सभी देशों ने अपने आप पर विचार, पुर्नविचार किया है, कर रहे हैं। वही भारत में इस सप्ताह वक्फ बोर्ड बिल, कांग्रेस अधिवेशन में पिछड़ों के आरक्षण, सीपीआईएम के अधिवेशन में ‘धर्म’ की चिंता और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा एक मुख्यमंत्री स्टालिन को नसीहत थी कि तमिल में दस्तखत तो कर दिखाएं!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

