पड़ताल: कोचिंग स्टूडेंट की आत्महत्या का हब बनता जा रहा है कोटा

पड़ताल: कोचिंग स्टूडेंट की आत्महत्या का हब बनता जा रहा है कोटा
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आनंद अग्निहोत्री
राजस्थान का कोटा शहर जिसे प्री–इंजीनियरिंग एग्जाम और मेडिकल एंट्रेस टेस्ट के मामले में देशभर में डंका बजाने वाला माना जाता था‚ अब कोचिंग स्टूडेंट की आत्महत्या का हब बनता जा रहा है। अभिभावक यह सोचकर अपने बच्चों को कोचिंग में अध्ययन करने के लिए कोटा भेजते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होगा। वे इंजीनियरिंग अथवा डॉक्टरी की शिक्षा में एडमीशन ले सकेंगे‚ अपने बच्चों को वे तमाम तरह के सब्जबाग दिखाते हैं‚ लेकिन तमाम केस ऐसे हो रहे हैं कि बच्चा असफल होने पर आत्महत्या कर लेता है और अभिभावक हाथ मलते रह जाते हैं। ॥ जनवरी‚ २०२५ में ही छह छात्रों के आत्महत्या कर लेने से एक बार कोटा फिर भयावह नजर आने लगा है। बड़ा सवाल यह है कि आखिर कोटा में कोचिंग सेंटर्स में पढ़ने वाले छात्र असफल होने पर क्यों आत्महत्या कर लेते हैं। इसके लिए जिम्मेदार कौन है। आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों से लोग अब अपने बच्चों को कोचिंग के लिए कोटा भेजने से कतराने लगे हैं। पिछले १० साल में कम से कम १२७ विद्याÌथयों की खुदकुशी के मामले सामने आए हैं‚ अब यह आंकड़ा और तेजी से बढ़ रहा है। इसे सरकारी तंत्र की विफलता मानें या कोचिंग सेंटल संचालकों की उदासीनता‚ पढ़ाई का दबाव झेलने में नाकाम रहने वाले विद्याÌथयों की मौत का आंकड़ा थमता नजर नहीं आ रहा है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने ऐसे घटनाक्रम रोकने के लिए प्रयास न किए हों। कई बार गाइडलाइंस जारी की गई हैं‚ लेकिन आत्महत्या का यह सिलसिला रु कता नजर नहीं आ रहा है॥। यक्ष प्रश्न यह है कि खुदकुशी के इस दर्दनाक खेल के लिए किसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। आज हर माता–पिता चाहते हैं कि उनके बालक अच्छी से अच्छी सेवा में जाएं और उनका नाम रोशन करें। जो माता–पिता अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते हैं वे अपने बच्चों को कोटा के कोचिंग सेंटर्स से तैयारी कराते हैं। इसमें दो राय नहीं कि डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए कोटा सर्वोत्तम हब माना जाता है। जाहिर है कि लोगों का ध्यान कोटा पर केंद्रित हो‚ लेकिन अभिभावक यह नहीं देखते कि उनका बच्चा इन दोनों पाठ्यक्रमों के लायक है भी या नहीं। सभी बालक अतिकुशाग्र बुद्धि के नहीं होते। सभी की बौद्धिक क्षमता एक जैसी नहीं होती। ऐसे में बच्चों को स्वप्न दिखाकर कोटा में एडमीशन दिलाना उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना ही है। तमाम बच्चे मध्यम और निचले वर्ग के भी होते हैं। उन्हें बताया जाता है कि कैसे शिक्षा प्राप्त कर उन्हें घर–परिवार का नाम रोशन करना है। जब वे इसमें असफल होते हैं तो नाकामी का दबाव उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है। बहुत से बच्चों पर घर का आÌथक दबाव भी होता है। इस दबाव के चलते उनके कदम खुदकुशी की ओर बढ़ते हैं। स्पष्ट है कि इन आत्महत्याओं के लिए प्राथमिक तौर पर उनके अभिभावक ही दोषी होते हैं। ॥ दूसरे नंबर पर आते हैं कोचिंग सेंटर संचालक। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुकी है। निम्न से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा में बडÃी रकम खर्च होती है। कोटा में जो कोचिंग सेंटर चल रहे हैं‚ उनमें भी मोटी रकम के लालच में बड़ी संख्या में विद्याÌथयों के प्रवेश ले लिये जाते हैं। भले ही उन कोचिंग सेंटर्स में छात्रों के बैठने तक की समुचित व्यवस्था न हो‚ लेकिन एडमिशन ले लिये जाते हैं। बाद में उनके बैठने आदि की वैकल्पिक अस्थायी व्यवस्था की जाती है। प्रवेश लेते समय सिर्फ बड़ी रकम देखी जाती है‚ बच्चे का मानसिक और बौद्धिक स्तर नहीं। बच्चा जेईई अथवा नीट एंट्रेंस क्लीयर कर पायेगा या नहीं‚ इस ओर कोई गौर नहीं किया जाता। कोचिंग सेंटर संचालक सिर्फ व्यवसाय कर रहे हैं। हम यह नहीं कहते कि वे अच्छी शिक्षा नहीं दे रहे‚ निश्चित रूप से दे रहे हैं‚ लेकिन यह देखने वाला कोई नहीं है कि बच्चे मानसिक रूप से यह शिक्षा ग्रहण कर भी पा रहे हैं या नहीं। बीच–बीच में उन्हें ताकीद कर दी जाती है कि वे पिछड़ रहे हैं और ज्यादा मेहनत करें‚ लेकिन कैसे‚ यह कोई नहीं बताता। शायद यही कारण है कि प्रशासन और सरकार ने जो गाइडलाइंस जारी की है‚ उसमें चयन समिति गठित करने का सुझाव दिया गया है। ॥ अगर चयन समिति में शामिल विषय विशेषज्ञ प्रवेश के समय ही विद्याÌथयों के मानसिक और बौद्धिक स्तर की जांच कर लें और सक्षम विद्याÌथयों को ही प्रवेश दें तो न संबंधित कोचिंग सेंटर का परीक्षा फल उत्तम हो बल्कि खुदकुशी की इस अनवरत चली आ रही श्रृंखला पर विराम भी लग सके। चयन समिति अगर अयोग्य या कमजोर छात्रों को प्रवेश ही न दे तो इतना ही तो होगा कि छात्र लौट जाएगा‚ लेकिन कम से कम आत्महत्या करने की नौबत तो नहीं आएगी। तीसरी जिम्मेदारी बनती है पीजी संचालकों की जो मोटी रकम लेकर छात्रों को आवास तो मुहैया करा देते हैं‚ लेकिन वहां ऐसी कोई सुरक्षात्मक व्यवस्था नहीं करते जिससे छात्र आत्महत्या न कर सके। कहने को कहा जा सकता है कि जिसे खुदकुशी करनी है वह कहीं भी कर सकता है‚ किसी भी प्रकार से कर सकता है मगर पीजी संचालकों की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि कम से कम वह अपने पीजी में तो इस तरह के इंतजाम कर लें कि छात्र खुदकुशी करने का मौका न पा सके। दूसरी बात उन्हें सिर्फ आय का साधन ही समझें बल्कि उनके दुख–सुख में सहभागी बनने का प्रयास करें ताकि छात्रों को पीजी में भी घर जैसा माहौल मिल सके।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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