उठते सवाल: नये संसद भवन के उद्घाटन से संसद की मुखिया को ही क्यों रहना पड़ा दूर?

उठते सवाल: नये संसद भवन के उद्घाटन से संसद की मुखिया को ही क्यों रहना पड़ा दूर?
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    लगभग एक सदी तक भारत की नियति का मार्ग दर्शन करने वाला संसद भवन रविवार 28 मई को नये भव्य भवन के उद्घाटन के साथ ही अतीत का हिस्सा बन गया है, लेकिन इस ऐतिहासिक क्षण का गवाह भारत की राष्ट्रपति श्रीमती मुर्मू नहीं हो सकीं। उनकी बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नये संसद भवन का उद्घाटन कर इतिहास में अपना नाम दर्ज कर लिया, जबकि भारत का राष्ट्रपति ही संसद का मुखिया होता है। राष्ट्रपति के नाम से ही लोकसभा और राज्यसभा के सत्र आहूत होने के साथ ही उन्हीं के नाम से सत्रावसान भी होता है। राष्ट्रपति के पास लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। राष्ट्रपति ही साल के पहले संयुक्त सत्र को संबोधित करते हैं, जिसमें लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य शामिल होते हैं। संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही कानून बनता है। यही नहीं विधेयक को संसद में रखने से पहले भी राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति चाहे तो किसी भी विधेयक को पुनर्विचार के लिये संसद को लौटा सकता है। इसलिये राष्ट्रपति को संसद का हिस्सा ही माना जाता है। इस ऐतिहासिक अवसर से संसद की मुखिया को अलग रखा जाना अपने आप में एक विचारणीय विषय अवश्य है।
ब्रिटिश राज और सम्प्रभुता सम्पन्न गणराज्य के बीच एक अति महत्वपूर्ण संवैधानिक कड़ी के रूप में मौजूद भारत का संसद भवन नये भवन के उद्घाटन के साथ ही अतीत बन गया है। वास्तुकला के इस बेजोड़ नमूने के साथ ही भारत के संसदीय इतिहास ने भी एक नया मोड़ ले लिया। अतीत बन रहे संसद भवन ने 1927 से लेकर 1952 तक ब्रिटिश राज के लिये भारत के विधान तय किये और सन् 1951-52 में भारत गणराज्य के पहले चुनाव से लेकर 2019 तक चुनी गयी 17 लोकसभाओं को विराजमान किया। निरंतर 71 सालों तक संसद का स्थाई सदन राज्यसभा इसी भवन में भारत के भविष्य को लेकर चिन्तन करती रही। इसी भवन में 14 और 15 अगस्त की मध्य रात्रि को पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का वह कालजयी भाषण हुआ था जो जोकि ‘‘ट्रीस्ट विद डेस्टिनी’’ यानी कि नियति के साथ साक्षात्कार, के नाम से विख्यात हुआ। आजादी के बाद इस संसद भवन ने राष्ट्र निर्माण की दिशा में कई ऐतिहासिक विधान बनाये जिनसे भारत को विश्वपटल पर नयी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक पहचान मिली तथा देश बैलगाड़ी युग से अंतरिक्ष युग तक पहुंच गया।
भारत की ब्रिटिश राजधानी कलकत्ता (कोलकत्ता) सेे 1911 में दिल्ली स्थानांतरित हुई तो उसके लिये अनेक भवनों की आवश्यकता पड़ी। ब्रिटिश शासन व्यवस्था के लिये वायसराय, उनके प्रशासन और विधायिका के लिये दिल्ली में ही भवन बनने लगे। इन सबके डिजाइन की जिम्मेदारी सर एडविन लुटियन और हरबर्ट बेकर को सौंपी गयी। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का प्रदर्शन कर भारत के शासन के संचालन के लिये इन तीनों भवनों के डिजाइन तैयार किये। इनमें सेंट्रल एसेंबली भवन 1927 में और वायसराय हाउस 1929 में बन कर तैयार हुआ। वायसराय हाउस आजादी के बाद राष्ट्रपति भवन और केंद्रीय एसेंबली स्वतंत्र भारत का संसद भवन कहलाया। ब्रिटिश उपनिवेश की याद दिलाने वाले चिन्हों को मिटाने के अभियान में कुछ अन्य इमारतों के साथ ही केंद्रीय एसेंबली भवन (संसद भवन) की जगह बहुचर्चित सेंट्रल बिस्टा के अंतर्गत नया संसद भवन तो मिल गया मगर अब अंग्रेजों की याद दिलाने वाले वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन) के भविष्य को लेकर भी लोक जिज्ञासा स्वाभाविक ही है।

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