चिंतन: बीमारी का विस्तार, बदलती जीवन शैली में समय पर सजगता जरूरी
डाॅ मनोज सिंघल
देश में कैंसर को लेकर जैसी जागरूकता होनी चाहिए, वह भी संतोषजनक नहीं है। इसका इलाज अब भी सामान्य आयवर्ग की क्षमता से बाहर है।
बदलती जीवन-शैली, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, खाद्य पदार्थों में विषाक्तता आदि के चलते बीमारियों का विस्तार हो रहा है। नई-नई बीमारियां जन्म ले रही हैं। कैंसर भी इन्हीं स्थितियों के चलते लगातार अपने पांव पसार रहा है। हालांकि अब इस समस्या से पार पाने के लिए चिकित्सा विज्ञान ने कई आसान और कारगर उपाय तलाश लिए हैं, इसकी दवाओं की उपलब्धता बढ़ी है। मगर यह अब एक आम बीमारी बन गया है। ‘लैंसेट’ के ताजा अध्ययन में बताया गया है कि अगले पंद्रह-सोलह वर्षों तक हर वर्ष केवल स्तन कैंसर से दस लाख मौतें हो सकती हैं। स्तन कैंसर अब एक आम बीमारी बन चुका है।

महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभावपूर्ण नजरिया घातक
स्वाभाविक ही इसे लेकर दुनिया भर के स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चिंता बढ़ गई है। बेशक इस रोग से पार पाना आसान हो गया है, पर असल समस्या हर किसी तक इसके इलाज की पहुंच संभव न हो पाना है। भारत जैसे समाजों में गरीबी, चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता कम होने तथा महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभावपूर्ण नजरिया व्याप्त होने की वजह से इस समस्या पर काबू पाना और कठिन हो जाता है।
अपने स्वास्थ्य के प्रति महिलाएं जागरूक नहीं रहती हैं
भारतीय समाज में महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी देखभाल में मुश्किलें इसलिए भी आती हैं कि महिलाएं खुद इसे लेकर बहुत सजग नहीं होती हैं। शहरी इलाकों में जरूर महिला स्वास्थ्य को लेकर सतर्कता देखी जाती है, मगर ग्रामीण और समाज के निचले कहे जाने वाले तबकों में इसका घोर अभाव नजर आता है। फिर, कैंसर को लेकर जैसी जागरूकता होनी चाहिए, वह भी संतोषजनक नहीं है। इसका इलाज अब भी सामान्य आयवर्ग की क्षमता से बाहर है।
इसलिए बहुत सारी महिलाओं में स्तन कैंसर की समय पर पहचान नहीं हो पाती और जिनकी हो भी पाती है, उसमें बहुत देर हो चुकी होती है और उनके लिए इलाज कराना कठिन होता है। ‘लैंसेट’ के अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि इसके लिए स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों को किसी न किसी रूप में संचार कौशल प्रशिक्षण देने की पहल करनी और रोगियों से संपर्क बनाना चाहिए। इस बीमारी को रोकने में सामूहिक प्रयास बहुत जरूरी हैं, जिनमें परिवार, समुदाय और चिकित्सा पेशेवरों का परस्पर जुड़ाव हो।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
