विदेश नीति: क्या भारत अब तक चीन और पाकिस्तान के ही घेरे में बंधा है?

विदेश नीति: क्या भारत अब तक चीन और पाकिस्तान के ही घेरे में बंधा है?
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हरिशंकर व्यास
इए, 2014 से 2025 के बीच भारत की विदेश नीति पर गौर करें। अमेरिका, चीन, रूस से लेकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, और मालदीव तक के साथ हमारे रिश्तों का क्या अर्थ निकला है? चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को झूला झुलाने से लेकर नवाज शरीफ के घर जाकर पकौड़े खाने तक और फिर ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे तक—इन सभी घटनाओं से दुनिया में सिर्फ यह साबित हुआ है कि भारत की विदेश नीति एक छोर से दूसरे छोर तक झूला झूलती रहती है। इस नीति में देश के रक्षा और सामरिक हितों का भी ध्यान नहीं रखा जाता, फिर भले ही विदेश मंत्रालय दुनिया भर से अपने प्रधानमंत्री को कितने भी राष्ट्रीय सम्मान दिलाए।
इसी मई में, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, चीन के सेनाधिकारी इस्लामाबाद में बैठकर पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल मुनीर को गाइड कर रहे थे। चीन पाकिस्तानी सेना को भारत के खिलाफ लड़ाकू विमान, मिसाइल और सेटेलाइट बैकअप दे रहा था। दुनिया ने तब देखा कि चीन और पाकिस्तान किस हद तक एक-दूसरे के करीब हैं। तब रूस भी पाकिस्तान का ही पक्ष ले रहा था। वह भारत के लिए नहीं बोला और तटस्थ रहा, क्योंकि यह अब एक वैश्विक सत्य है कि चीन उसका मालिक बन चुका है। चीन के दम पर ही राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन से लड़ रहे हैं।
ये सभी बातें आज के स्थायी सत्य हैं। नरेंद्र मोदी का ‘गॉडफादर’ किसे माना जा रहा था? डोनाल्ड ट्रंप को। आखिर मोदी ने उनके लिए अमेरिकी चुनाव के समय खुद सभा में ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा लगाया था। इतना ही नहीं, ट्रंप को खुश करने के लिए भारत में उनका रियल एस्टेट कारोबार भी शुरू करवाया गया। कहा जाता है कि ट्रंप की कंपनियों ने बिना एक पैसा लगाए भारत में हजारों करोड़ रुपये कमाए। यह भी सच है कि अमेरिका के बाइडेन या ट्रंप प्रशासन ने चीन की डोकलाम आक्रामकता और पाकिस्तानी हरकतों के सामने मोदी सरकार को भरपूर मदद और खुफिया जानकारी दी है, और शायद अभी भी दे रहे हैं। मोदी सरकार भले ही सार्वजनिक तौर पर इनकार करे, लेकिन मई में सीजफायर ट्रंप प्रशासन के कारण ही हुआ था!
पर मोदी और उनके सलाहकार डोवाल और जयशंकर ने शायद तब भी यही माना कि ट्रंप भी कोई खास नहीं हैं। इसलिए, सीजफायर के बाद ट्रंप का आभार जताने के बजाय भारत ने उन्हें ‘ठेंगा’ दिखाया। पाकिस्तान के जनरल मुनीर ने इस मौके का फायदा उठाया और वे (चीन की पूरी सहमति से) ट्रंप की गोद में बैठ गए। पाकिस्तान ने ट्रंप को शांति का नोबेल पुरस्कार देने की भी पैरवी की।
प्रधानमंत्री मोदी और उनके सलाहकारों को ट्रंप के मिजाज को गहराई से समझना चाहिए था। लेकिन भारत में सब कुछ हल्के में लिया जाता है, और मोदी इस मुगालते में रहे कि ट्रंप क्या कर लेंगे। नतीजतन, जब ट्रंप ने भारत को ‘डेड इकोनॉमी’ घोषित करके टैरिफ लगाए, तो मोदी-डोवाल-जयशंकर पर मानों पहाड़ टूट पड़ा! ध्यान रहे, ट्रंप ने कनाडा, मेक्सिको, ब्रिटेन, यूरोप, जापान, दक्षिण कोरिया—सभी पर टैरिफ लगाए हैं। सभी देशों पर इसकी मार पड़ी है, और चीन पर तो सबसे ज़्यादा। लेकिन इन सभी देशों ने ट्रंप प्रशासन को जिस तरह से संभाला, उसकी तुलना में भारत तुरंत एक छोर से दूसरे छोर तक उछलने वाली ‘लंगूर कूटनीति’ में दूसरी दिशा में कूद गया! डोवाल दौड़े-दौड़े पहले रूस गए, फिर चीन गए, और जयशंकर भी जा पहुंचे। पुतिन ने भारत यात्रा की घोषणा की, और चीन के विदेश मंत्री ने भारत आकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ फोटोशूट कराया। अब प्रधानमंत्री अगले महीने चीन जाकर शी जिनपिंग के साथ फिर झूला झूलेंगे। इसका मतलब है, ‘ट्रंप-मोदी भाई-भाई’ नहीं, बल्कि अब ‘शी जिन-मोदी भाई-भाई’ की नीति।
लेकिन क्या चीन कभी भारत का सगा हो सकता है? क्या रूस के पुतिन अपने गॉडफादर राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रणनीति से अलग हटकर पाकिस्तान के खिलाफ भारत के मददगार हो सकते हैं?
इस अस्थिर और दिशाहीन कूटनीति से चीन, रूस, अमेरिका, यूरोप, जापान और दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों में भारत की छवि क्या बनती है? मेरा मानना है कि ये सभी देश भी यही सोचते होंगे कि भारत और उसकी विदेश, व्यापार व सामरिक नीति गंभीर नहीं हैं। शायद यही कारण है कि भारत की नियति चीन और पाकिस्तान के ही घेरे में बंधी रहने की है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Parvatanchal

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