खरी खरी: सोते रहे रेलवे मंत्रालय और रेल मंत्री, रोती रही आस्था

नितिनमोहन शर्मा
नई दिल्ली स्टेशन पर बढ़ती बेतहाशा भीड़ क्या सीसीटीवी पर रेलवे के मौके पर मौजूद अफसरों को नजऱ नहीं आ रही थी? दिल्ली हादसे पर इंदौर के अखबार ख़ुलासा फर्स्ट द्वारा उठाया गया ये सवाल हादसे की जांच का मुख्य बिंदु बन गया है। ऐसे ही आज भी एक सवाल सबसे मोजू है कि 13 जनवरी यानी कुंभ के आगाज़ के साथ ही रेल के सफऱ के बुरे हाल मोदी सरकार के रेल मंत्रालय को नज़र नहीं आ रहे थे? रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव स्टेशनों व प्लेटफॉर्म पर पसरी अराजकता से अंजान थे? डिब्बों में तोडफ़ोड़ करने के समाचार व दृश्य से मंत्री महोदय बेख़बर क्यों बने रहे? महिनों पहले महंगे टिकट रिजर्वेशन कर कुंभ नगरी जाने वाले लाखों लोगों के बुरे हाल पर भी भारत सरकार का रेल मंत्रालय क्यों चेन की नींद सोता रहा? अब अगर विपक्ष रेल मंत्री का इस्तीफा मांग रहा है तो वह राजनीति का विषय कैसे हो गया? ये तो शुद्ध आस्था का विषय है कि ‘रेलवे मंत्रालय, रेल मंत्री सोते रहे और आस्था रोती रही। दबती रही, कुचलती रही, दम तोड़ती रही।’ आस्थावान सरकार, आस्था के प्रति इस बेफिक्री पर मंत्री को दंड देगी? या मंत्री महोदय के मानस में व्याप्त नैतिकता उन्हें झकझोरेगी? जिन्होंने रेल मंत्रालय की परिधि में अपनों को खोया, वे ही नहीं…पूरे देश की इस पर नजरें हैं।
महाकुंभ तक आने जाने के लिए रेल से सफऱ के जो नज़ारे देश-दुनिया देख रही थी, वो क्या रेल मंत्रालय को नजऱ नहीं आ रही थी? कांच फोड़ते, खिड़की तोड़ते, इंजिन में घुसते, डिब्बों में दबते, स्टेशनों पर कुचलते लोग क्या रेलवे के अफ़सरों को नहीं दिख रहे थे? जब से कुंभ का शुभारंभ हुआ, रेल के सफऱ के बुरे हाल दृश्य श्रव्य माध्यमों पर सरेआम दिखाए जा रहे थे, बावजूद इसके रेलवे के जिम्मेदार सोते रहे और निर्दोष आस्था रोने बिलखने को मजबूर होती रहीं। आखिऱ रेलवे मंत्रालय की जवाबदेही क्यों तय नहीं होती? जिम्मेदार अफ़सर अब तक दंड के दायरे से क्यों बाहर हैं? जो व्यवस्था दिल्ली में हादसे के दूसरे दिन यानी रविवार को हुई, वह शनिवार को क्यों नहीं हो पाई? इसका जवाब है क्या किसी के पास?
क्या केवल स्पेशल ट्रेन चला भर देना ही रेलवे का इतने बड़े आस्था के उत्सव के लिए काफ़ी था? रेल वाले स्पेशल ट्रेनों के आंकड़े गिना रहे हैं लेकिऩ इन स्पेशल ट्रेनों में सफऱ कैसे हो रहा है, इस पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? 13 जनवरी से रेल के सफर के बुरे हाल सब तरफ़ चर्चा में थे। बावजूद इसके रेल मंत्रालय क्या करता रहा? ये सवाल विपक्ष का ही नहीं, जन जन का है। जवाब देना ही पड़ेगा। अन्यथा ये माना जायेगा कि रेल मंत्रालय ने ही आस्था से अभिभूत जनसामान्य को मरने के लिए छोड़ा था।
रिज़र्वेशन क्लास के डिब्बो में जिस तरह से अराजकता पसर रही थी, वह वक्त रहते क्यों नहीं थामी गई? लोगों ने एसी कोच तक को नहीं बख़्शा। उसके हाल भी जनरल डिब्बे से बदतर कर दिये। दरवाज़ों को लात मार कर तोड़ा जा रहा था। एसी कोच के कांच फोड़े जा रहे थे। एक डिब्बे में एक हज़ार यात्रियों के घुसने, दबने के नज़ारे क्या सिर्फ़ देश ही देख रहा था? मोदी सरकार का रेल मंत्रालय इस सबसे बेख़बर था? अगर नहीं था तो फिऱ ये सीधे जिम्मेदारी रेल मंत्री महोदय की नहीं बनती क्या?
प्रयागराज आने जाने वाले तमाम रेलवे स्टेशनों पर एक जैसे हालात थे। फिऱ चाहे वह सतना हो या पटना या फिऱ दिल्ली हो या भोपाल। हज़ारों की भीड़ हर स्टेशन पर पहुँच रही थी लेकिऩ वह भगवान भरोसे क्यों छोड़ दी गई? आम आदमी का प्रयागराज सफऱ तो रेलवे के जरिये ही पूरा होना था। उसके पास कहां कार व अन्य चार पहिया वाहन हैं। वह तो बाल-बच्चों सँग रेलवे स्टेशन की तरफ ही बढ़ेगी। आखिऱ रेल ही तो आस्था के इस रेले का कुंभनगरी जाने का एकमात्र जरिया थी। बावजूद इसके भारत सरकार का रेल मंत्रालय क्या करता रहा? सिर्फ़ स्पेशल ट्रेन चला देने या रेल के फेरे बढ़ा देने तक ही उसकी जवाबदारी थी?
हादसे के बाद के बंदोबस्त पहले से लागू क्यों नही हुए?
रेल मंत्रालय की स्टेशन के अंदर, बाहर व डिब्बों के अंदर बाहर के हालात पर कोई तैयारी क्यों नहीं थी? कुंभ नगरी तक न पहुँचने का स्टेशनों पर पसरते ग़ुस्से पर भी वह आंखें मूंदे क्यों बैठा रहा? सिर्फ़ जीआरपी के ज़रिए हज़ारों लाखों लोगों को संभालने तक ही रेलवे क्यो सीमित रहा? स्थानीय पुलिस महक़मा रेलवे का सहयोगी क्यों नहीं बनाया गया? जैसा दिल्ली में शनिवार को हुए मौत के तांडव के बाद रविवार को स्थानीय पुलिस की मदद ली गई, वैसा कुंभ की शुरुआत से ही क्यों नहीं किया गया?
प्रयाग जंक्शन जैसी व्यवस्था रेलवे ने हर स्टेशन पर क्यों नहीं की?
प्रयागराज में योगी सरकार ने पहले ही दिन से स्थानीय पुलिस को भी रेलवे स्टेशनों की जवाबदारी दी। स्टेशन के अंदर बेतहाशा भीड़ नहीं बढ़ने देने व प्लेटफॉर्म पर कतारबद्ध लोगों को जाने देने का काम योगी सरकार ने किया। नतीज़े में जहाँ करोड़ों लोग पहुँचे, वहां एक भी हादसा रेलवे स्टेशन पर नहीं हुआ, जबकि जो दिल्ली में हुआ, वह हूबहू 2013 कुंभ में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हुआ था। प्रयाग जंक्शन की व्यवस्था रेलवे मंत्रालय ने हर स्टेशन पर क्यों नहीं की? क्यों नहीं उसे हर उन स्टेशनों पर पुलिस मदद की जरूरत महसूस नहीं हुई, जहाँ बोगियों में घुसने की मारामारी चल रही थी?
स्थानीय पुलिस, अफ़सरों को रेलवे के न्यौते का इंतज़ार या घटना का?
दिल्ली हादसे के बाद भी हालातों से रेलवे ने कुछ नहीं सीखा। सीखा होता तो रविवार को इंदौर, भोपाल, रीवा, सतना, इटारसी में वैसे ही हालात क्यों बनते? अब भी रीवा, जबलपुर, सतना रूट पर स्टेशन व प्लेटफॉर्म पर हालात जस के तस बने हुए हैं। वही मुठीभर जीआरपी का अमला और हज़ारों हज़ार मुसाफिर। शायद रेलवे को इन स्टेशनों पर भी किसी हादसे का इंतज़ार हैं। इंतज़ार में तो स्थानीय पुलिस भी वैसे ही है, जैसे दिल्ली की थी। जिस तरह दिल्ली पुलिस कमिश्नर घटना के बाद स्टेशन पर बंदोबस्त के लिए पहुंचे, वैसे ही स्थानीय अफ़सर शायद किसी घटना का इंतज़ार कर रहें हैं या रेलवे के न्यौते-मनुहार का? है न?
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
