स्मरण: स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधाओं के अग्रिम सेनानी थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस

स्मरण: स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधाओं के अग्रिम सेनानी थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस
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जयंती पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि !

 

अनंत आकाश

23 जनवरी 1897 को कटक में जन्मे नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उच्च शिक्षा कलकत्ता से प्राप्त की। 1919 में वे भारतीय सिविल सेवा की तैयारी हेतु लन्दन गये। उनका आई सी एस में चयन होने के बावजूद उन्होंने इससे इस्तीफा दे दिया । हिन्दुस्तान आकर वे विभिन्न सामाजिक एवं राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गये। वे 1938-39 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। इससे पहले उन्होंने वर्ष 1930 में गांधी जी के नमक सत्याग्रह तथा 1931में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भागेदारी की। 1930 में मजदूर वर्ग को संगठित करने के उद्देश्य से उन्होंने एटक की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो आगे चलकर आजादी के आन्दोलन का हिरावल दस्ता बना। 1931 में करांची अधिवेशन में मौलिक अधिकारों एवं उत्पादन पर समाज के अधिकारों तथा समाजवादी विचारों के प्रस्ताव में नेताजी की अहम भूमिका रही क्योंकि उस दौर में हिन्दुस्तान का क्रान्तिकारी आन्दोलन चरम पर था। देश के युवा भगतसिंह व आजाद के नेतृत्व में आन्दोलित थे तथा 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की शहादत हो चुकी थी तथा युवाओं का सोवियत व्यवस्था की ओर झुकाव था । 1941 में देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से नेता जी पेशावर के रास्ते अफगानिस्तान एवं जर्मनी पहुंचे। जहां उन्होंने हिन्दुस्तानियों की सहायता से 1942 में आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। हिन्दुस्तानी सिपाहियों को संगठित करते हुऐ सिंगापुर में आई एन ए की स्थापना की तथा ‘जयहिंद’ के नारे तथा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ के आह्वान के साथ आई एन ए के सैनिकों की विशाल टुकड़ी के साथ वर्ष 1944 में हिन्दुस्तान में प्रवेश किया, किन्तु दुर्भाग्यवश वे अंग्रेजों की आधुनिक सेना तथा कुचक्रों के तहत सफल नहीं हो पाये। 1945 में एक दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। उनके आजादी के आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान एवं कुर्बानी के लिए उन्हें हिन्दुस्तान का आवाम बड़े ही आदर से देखता है। यही कारण है कि वे आज भी किसी न किसी रूप में हमारे मनोमतिष्क में हैं ।


आज जो विचारधारा आजादी के आन्दोलन में अंग्रेजों के लिए काम करती रही थी,या फिर जिन्हें आजादी के आन्दोलन से कोई लेना देना नहीं था ,यूं कहें कि जिन्होंने अंग्रेजों की मदद करने के लिए हिन्दू और मुस्लिमों में खाई पैदा की, आज वह विचारधारा न केवल महात्मा गांधी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, यहां तक कि नेताजी की क्रान्तिकारी बिरासत को हड़पने की फिराक में है। इन लोगों द्वारा स्वामी विवेकानंद की तरह आज नेताजी को हिन्दुत्व का चोला ओढ़ाने की कोशिश की जा रही है। 2014 के बाद तो साझी शहादत एवं साझी विरासत की गौरवशाली परम्परा को हड़पने की साजिशों में तेजी आयी है। इस दौर में जहां माफीबीरों को देशभक्त बनाने की नापाक कोशिश जारी है तो दूसरी तरफ देश की सर्वोच्च क्रान्तिकारी हिरासत को हड़पने की कोशिशों में तेजी आयी है। इसके लिए खरीद फरोख्त भी चल रही है, किन्तु साम्प्रदायिक एवं विभाजनकारियों की साजिश कामयाब नहीं हो पाई है। आज इन लोगों की नेताजी के जन्म दिवस मनाने के पीछे भी यही मन्शा है। इसका चौतरफा विरोध हो रहा है। देश की जनता जानती है कि आजादी के आन्दोलन के असली हीरो कौन थे और विलेन कौन थे ? साम्प्रदायिक तत्वों, जिनका नेतृत्व सावरकर कर रहे थे उनकी पोलपट्टी ऐतिहासिक दस्तावेजों से स्वयं ही खुल जाती है ।
वर्ष 1930 में सुभाष चंद्र बोस ने अरबिंदो के छोटे भाई, क्रांतिकारी नेता बरिंद्र कुमार घोष को एक लंबा, हस्तलिखित पत्र लिखा । इसमें उन्होंने वर्ग संघर्ष में अपना विश्वास स्थापित किया- “इन सभी वर्षों के दौरान हमारा मतलब और स्वतंत्रता से समझा गया है, केवल राजनीतिक स्वतंत्रता; लेकिन अब से हमें यह घोषित करना होगा कि हम लोगों को केवल राजनीतिक बंधनों से मुक्त नहीं करना चाहते हैं। हम उन्हें सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त करना चाहते हैं। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का उद्देश्य राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उत्पीड़न के तिहरे बंधनों को हटाना है। जब सभी बंधनों को हटा दिया जाएगा, हम साम्यवाद के आधार पर एक नए समाज के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकते हैं। हमारे स्वतंत्रता संग्राम का यह मुख्य उद्देश्य एक स्वतंत्र और वर्गहीन समाज का निर्माण करना है।” इन शब्दों को पढ़-सुन कर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अपने राजनीतिक जीवन के तीन दशकों में, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने लगातार समाजवाद में अपना विश्वास व्यक्त किया, फेबियन या गांधीवादी ब्रांड के नहीं, बल्कि मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित। उनकी जयंती पर सादर नमन!

(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं )

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