विदेश संबंध: क्या प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के पीछे ट्रंप से बढ़ती दूरी वजह है?

विदेश संबंध: क्या प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के पीछे ट्रंप से बढ़ती दूरी वजह है?
Spread the love

हरिशंकर व्यास
बर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन जा रहे हैं। वे संभवतः 31 अगस्त से 1 सितंबर, 2025 के बीच तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। सन् 2020 में गलवान घाटी में चीन की आक्रामकता के बाद यह उनकी पहली चीन यात्रा होगी।
खास बात यह है कि अमेरिका द्वारा भारत पर टैरिफ की घोषणा के बाद, भारत में चीन के राजदूत झू फेइहोंग ने ट्रंप को ‘धौंस जमाने वाला’ (bully) कहा। उन्होंने बिना किसी का नाम लिए ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा, “अगर आप एक बुली को एक इंच देंगे, तो वह एक मील ले लेगा।” उन्होंने यह भी बताया कि चीन के विदेश मंत्री वांग यी और ब्राज़ील के राष्ट्रपति के मुख्य सलाहकार के बीच बातचीत हुई है।
उधर, अजित डोवाल रूस गए और फिर खबर आई कि राष्ट्रपति पुतिन साल के आखिर में भारत यात्रा पर आएँगे। ध्यान रहे, ट्रंप से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने शी जिनपिंग के साथ ही झूला झूले थे और राष्ट्रपति पुतिन के वे वैसे ही सखा थे, जैसे बाद में डोनाल्ड ट्रंप के हुए।
अब जब ट्रंप बिगड़ गए हैं, तो प्रधानमंत्री को वे पुतिन और शी जिनपिंग याद आए हैं, जो पूरी दुनिया के लिए फिलहाल नंबर एक युद्ध अपराधी और विश्व की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाले ‘ड्रैगन’ हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि घंटे-आधे घंटे के जिस ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में भारत के लड़ाकू विमानों को नुकसान हुआ, वह पाकिस्तानी सेना के साथ चीन की सेना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग से हुआ था। तब रूस ने भी भारत के पक्ष में एक शब्द नहीं बोला था। लेकिन इन दो नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी फिर से झूला झूलकर ट्रंप को अपना रुतबा बताएँगे।
सवाल यह है कि विश्व राजनीति में ‘तड़ीपार’ पुतिन की दिल्ली में मेजबानी और शी जिनपिंग की मेहमाननवाज़ी भोगने से क्या भारत की शान बढ़ेगी? क्या चीन और रूस अब भारत से वह निर्यात खरीद लेंगे जो अमेरिका खरीदता है? इससे भी अहम सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार को गलवान से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ तक के अनुभवों से इतना भी समझ नहीं आया कि चीन का हर व्यवहार भारत के प्रति दुश्मनी का है? वह सिर्फ पाकिस्तान का संरक्षक ही नहीं है, बल्कि उसके भारत विरोधी सैन्य अभियानों में भागीदार भी था। उधर, चीन अब रूस का भी वैसे ही संरक्षक है जैसे पाकिस्तान का है।
दक्षिण एशिया और पूरे एशिया का ‘बुली’ (गुंडा-दादा) चीन है या अमेरिका? भारत को पहले व्यापार और टैरिफ की चिंता करनी चाहिए या सीमा की सुरक्षा, सामरिक और भू-राजनीतिक हितों की? क्या प्रधानमंत्री कार्यालय, विदेश मंत्रालय और अजित डोवाल के दफ्तर में इतनी भी जानकारी नहीं है कि इसी मई महीने में पाकिस्तान ने चीनी लड़ाकू विमानों, मिसाइलों और सैटेलाइट इमेज के समर्थन से भारत की सेना को जवाब दिया? चीन के सैन्य अधिकारी और मंत्री इस्लामाबाद में बैठे रहे, और रूस यानी पुतिन ने उस दौरान ऐसा कोई भी संकेत नहीं दिया जिससे भारत की हिम्मत बंधे।
मेरा मानना है कि रूस और पाकिस्तान दोनों अब चीन के नेता शी जिनपिंग के वफादार बन गए हैं। हो सकता है कि चीन ने ही जनरल मुनीर को ट्रंप के यहाँ कूटनीति का रोडमैप दिया हो। फिलहाल पाकिस्तान, कतर और चीन सभी चाहते हैं कि हाल के दशकों में उभरते भारत की, जिसकी पहचान उसकी बाज़ार शक्ति से बनी है, वह पहचान जैसे भी हो, खत्म हो जाए। यदि ट्रंप ने भारत को रूस से जोड़कर, उसे वैसी ही ‘डेड इकोनॉमी’ वाला देश करार दिया तो क्या वह पाकिस्तान और चीन के लिए राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक तौर पर फायदेमंद नहीं होगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Parvatanchal

error: कॉपी नहीं शेयर कीजिए!