नज़रिया: अंध विश्वास का दंश झेलते भारतीय समाज में बाबाओं का बढ़ता बोलबाला

नज़रिया: अंध विश्वास का दंश झेलते भारतीय समाज में बाबाओं का बढ़ता बोलबाला
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अशोक शर्मा
भी कुछ दिन पहले  उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक धार्मिक सभा में हुई भगदड़ में 120 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई ।  इस घटना ने फिर से इस बहस को छेड़ दिया है कि क्या भारत में शोषणकारी धार्मिक एवं अंधविश्वासी प्रथाओं से निपटने के लिए पर्याप्त नियम एवं कानून हैं ? और यदि हैं तो क्या वे सभी तरह की कुप्रथा, अंधविश्वास एवं अन्य भ्रांतिपूर्ण धार्मिक  विचारधाराओं  पर लगाम लगाने और इससे पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में सक्षम हैं?
कई विशेषज्ञों ने इस विषय में अपनी राय रखी है कि अंधविश्वास, काला जादू, जादू टोना और अन्य सभी प्रकार की अमानवीय एव असामाजिक प्रथाओं एवं मान्यताओं से सुचारू एवं प्रभावी ढंग से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय कानून हो । महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में इस तरह के कानून पहले से लागू हैं। विशेषज्ञों  एवं कई संस्थाओं ने  इसी तर्ज पर एक राष्ट्रीय कानून की वकालत की है। पिछले कई दशकों से कई संस्थाएं एवं संगठन अंधविश्वासी प्रथाओं से निपटने के लिए एक केंद्रीय कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।
पहले तो हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत में इन अंधविश्वासी प्रथाओं की रोकथाम एवं उनसे निपटने के लिए क्या कानून हैं और क्या  मौजू‌दा  कानून और आपराधिक कानू‌नों के प्रावधान इनसे निपटने के लिए पर्याप्त हैं?  मौजूदा आपराधिक कानून में ऐसी प्रथाओं को केद्रिंत करके कोई ठोस एवं और प्रतिबद्ध प्रावधान नहीं है।   नतीजतन पुलिस विभाग एवं पुलिस अधिकारी अक्सर पाखंडी बाबाओं की धोखाधड़ी एवं आपराधिक गतिविधियों के खिलाफ मामले दर्ज करने में कोई रुचि नहीं दिखाते हैं एवं ज्यादातर अनिच्छुक ही रहते हैं। हालांकि आपत्तिजनक विज्ञापन अधिनियम  मौजूद है, परंतु इसमें भी बहुत सारी खामियां हैं। इसलिए, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक राज्यों जैसा कानून पूरे देश में लागू करने की माँग भी कई फोरम के माध्यम से उठी है।
कानून में एक स्पष्ट परिभाषा न होने के कारण धार्मिक प्रथाओं एव धार्मिक अंधविश्वास में भेद करना मुश्किल हो जाता है। अंधविश्वास की एक ऐसी परिभाषा जो सबको स्वीकार्य हो, शायद ये संभव ना हो। लेकिन इसकी परिभाषा इतनी कठोर जरूर होनी चाहिए, जिससे  प्रथा का दुरुपयोग किसी को नुकसान  पहुंचाने के लिए न हो सके। हांलांकि इस पर और भी विस्तृत बहस की जा सकती है।
प्रायः ये देखा गया है कि  राज्य सरकार स्थानीय आबादी की संस्कृति एवं परंपराओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील एवं सजग रहती है। भारत में राज्यों की विविधताओं को देखते हुए ,क्या एक राष्टीय कानून लागू करना व्यावहारिक होगा? क्योंकि ऐसा कानून विभिन्न राज्यों में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वासों एवं प्रथाओं को समावेशित नहीं कर पाएगा और जाने अनजाने में प्रताड़ित व्यक्ति या समूह को न्याय नहीं मिल पाएगा। इसके विपरीत यह पहले से ही शक्तिशाली व्यक्तियों एवं समू‌हों को और शक्तिशाली बना सकता है जो अंधविश्वास के नाम पर भोली भाली जनता के साथ ठगी एवं खिलवाड़ करते हैं। तो क्या राज्य विशेष कानून बनाना ज्यादा हितकर होगा, क्योंकि वे स्थानीय वास्तविकताओं,मान्यताओं एवं प्रथाओं के अनुरूप होंगे?  इसका एक समाधान ये हो सकता है कि राष्ट्रीय कानून  बनाने के बाद, विभिन्न राज्यों की स्थानीय संस्कृति, प्रथाओं  एवं मान्याताओं के अनुरूप इसमें संशोधन कर सकते हैं। संशोधन करके अतिरिक्त धाराएं जोड़ी जा सकती हैं और परिभाषा को और राज्यकेंद्रित एवं व्यावहारिक बनाया जा सकता है। इससे यह कानून और प्रभावी सिद्ध  होगा, लेकिन केवल कानून बना देने से समस्या का हल नहीं होगा।
प्रायः कानून लागू करने वाली एजेंसियों में इस तरह के मामलों में संवेदनशीलता की भारी कमी देखी गयी है। पुलिस अधिकारी एवं कर्मचारी अक्सर सांस्कृतिक संवेदनशीलता एवं पूर्वाग्रहों के कारण विभिन्न धार्मिक प्रथाओं  को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं देख पाते । ऐसे मामलों में पुलिस को रिपोर्ट दर्ज करने को राजी करने के लिए भी काफी प्रयास की आवश्यकता होती है और अगर रिपोर्ट  दर्ज भी हो जाए तो अक्सर राजनीतिक प्रभाव एवं दखलंदाजी के कारण जाँच प्रभावित होती हैं जिससे सजा की दर बहुत कम होती है। इसके अलावा, जातिगत भेदभाव अंधविश्वास का एक ऐसा पहलू है जिसको  अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।  इसलिए सबसे जरूरी है कि पुलिस महकमे के सभी स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को ऐसे मामलों के लिए विशेष  प्रशिक्षण दिया जाए क्योंकि प्रथमद्रष्टया वे ही इन पर प्रतिक्रिया देते हैं और कार्यवाही करते हैं।  एक विचार ये भी है कि इस तरह के कानून  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म को अबाध रूप से मानने एवं आचरण करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसलिये हमें यह सुनिश्तित करना होगा कि ये कानून सार्वजनिक हितों की रक्षा भी भी करे और संविधान की कसौटी पर भी खरा उतरें।   ये ध्यान देने योग्य बिंदु है कि अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता ; लोक व्यवस्था, सदाचार और नैतिकता के हित में लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन ही है।
जैसा कि जस्टिस आर्नोल्ड ने 1862 में बाम्बे हाईकोर्ट में  महाराजा लिबल केस में कहा था ” जो नैैतिक रूप से गलत है वह धार्मिक रूप से सही नहीं हो सकता” ।  इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि धार्मिक विश्वास किसी को ऐसा करने की अनुमति देता है जो नैतिक रूप से स्वीकार्य नहीं है। अतः शोषणकारी धार्मिक प्रथाएं स्वाभाविक रूप से मौलिक अधिकारों का उल्लघंन  करती हैं। जैसे कि अस्पृश्यता के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार, जीने का अधिकार ।
कानूनों के लिए सिर्फ़ दंडात्मक प्रकृति के बजाय सुधारात्मक उपायों को प्राथमिकता देना ज़रूरी है। उदाहरण के लिए, अध्ययनों से पता चला है कि झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में डायन-हंटिंग की शिकार  महिलाएं एवं उनके परिजन अक्सर सामाजिक बहिष्कार झेलते हैं, जिससे ज़रूरी संसाधनों और सेवाओं तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है।  ऐसे अपराधों के पीड़ितों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों को लागू करने के मामले में राजनीतिक संकल्प की कमी उल्लेखनीय है। विशेषकर आदिवासी जिलों में डायन-हंटिंग एक गंभीर समस्या बनी हुई है, जहाँ सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समुदायों की महिलाओं को अक्सर निशाना बनाया जाता है। भारत की आबादी में आदिवासी समुदायों की हिस्सेदारी लगभग 8% होने के बावजूद, डायन-हंटिंग के पीड़ितों के लिए समर्पित कल्याणकारी योजनाएँ लगभग ना के बराबर हैं। इस असमानता को दूर करने के लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, स्कूली शिक्षकों और जिला मजिस्ट्रेटों एवं अन्य  प्रमुख सम्बन्धित लोगों के लिए व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम आवश्यक हैं। इससे वे सहायता मांगने वाले पीड़ितों को प्रभावी ढंग से सहायता और निवारण प्रदान करने में सक्षम होंगे।  इसके अतिरिक्त ऐसी  कुप्रथाओं से पीड़ित लोगों के लिए पीड़ित सहायता कोष बनाने की जरुरत है ताकि उनकी शीघ्रकालिक एवं दीर्घकालिक आर्थिक मदद की जा सके। एक बहुत दिलचस्प बात ये है कि के आज के वैज्ञानिक युग में भी हमारे देश में स्वयंम्भू बाबाओं के भक्तों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रही है।
बड़ी संख्या में लोग इन बाबाओं के चंगुल में फंस रहे हैं। इनमें अनपढ़ ही नहीं बल्कि सामान्य पढ़े लिखे एवं उच्च शिक्षित लोगों की भी एक बड़ी तादाद है।
इस पर विचार करना जरूरी है कि  इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मन में ऐसी क्या असुरक्षा की भावना है कि  वे धार्मिक  अंधविश्वास के कुचक्र का शिकार हो रहे हैं?
अब हाथरस के भोले बाबा का ही उदाहरण ले लीजिए, जो कि एक भूतपूर्व पुलिस कांस्टेबल है और  चमत्कारी शक्तियों का दावा करता है। उसकी सभाओं में लाखों लोगों की भीड़ जुटती है। उसके अनुयायियों में समाज के निचले तबके से लेकर सभी वर्गों के लोग शामिल हैं।   हमें  उपर्युक्त सभी को एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप मे देखना होगा और इसके मूल कारण का पता लगाना होगा।
प्रायः लोग धार्मिक अधविश्वास को अपनी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक समस्याओं का समाधान मानने लगते हैं। इसी बात का पाखंडी बाबा फायदा उठाते हैं और उनको छोखा देते हैं।   तर्क एवं विज्ञान को ताक पर रखकर अंधविश्वास की ओर झुकाव का जैसे चलन सा हो गया है। जनमानस को ऐसी मानसिकता से बाहर निकलना होगा और अपने दैनिक जविन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना होगा। बहुत जरूरी है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया वर्ग, सिविल सोसाइटी, गैर सरकारी संस्थान इत्यादि विचार विमर्श करें और तीखे सवाल करें , जो आजकल नदारद सा है। शायद वो दौर खत्म सा हो गया है। यही उपयुक्त समय है कि केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें इस दिशा में अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करें और स्कूलों, शिक्षण संस्थानों में ऐसी शिक्षा हो, ताकि समाज में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक सोच विकसित हो सके और कड़े कानून बनाएं जाएं, ताकि धार्मिक अंधविश्वास एवं पाखंड में लिप्त लोगों को न्यूनतम समय में कड़ी सजा मिले। तभी हम अपने देश में एक जागरूक समाज का निर्माण कर पाएंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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