चुनावी रण: पढ़िए, क्या कहता है इन पांच विधानसभा सीटों का चुनावी आकलन

चुनावी रण: पढ़िए, क्या कहता है इन पांच विधानसभा सीटों का चुनावी आकलन
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देहरादून। सोमवार को हुए मतदान के बाद उत्तराखंड में भले ही सियासत की चुनावी चिल्ल-पों खत्म हो गई है लेकिन विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमा रहे विभिन्न उम्मीदवारों व राजनीतिक दलों की हार-जीत को लेकर कयासबाजी का दौर जारी है और परिणाम घोषित होने तक यह दौर निरंतर जारी रहेगा। यूं तो प्रदेश की कुल 70 विधानसभा सीटों में से कमोबेश हर सीट के चुनावी हालात के बारे में मीडिया के जरिए जानकारियां उजागर होती रही हैं। लेकिन कुछ सीटें ऐसी हैं जो अलग अलग कारणों से चर्चाओं में रहती आई हैं। इनमें से चार विधानसभा सीटों पर उम्मीदवारों की स्थिति कैसी रही और किस के पक्ष में हार-जीत की संभावनाएं हैं, यह जानने के लिए पढ़िए यह आकलन-

कोटद्वार विधानसभा सीट

कोटद्वार विधानसभा सीट कई मायने में महत्वपूर्ण है। इसी सीट से हार की वजह से 2012 में बीजेपी सत्ता गंवा बैठी थी। 2012 में तीसरी विधानसभा के गठन के लिए हुए चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी से चुनाव हार गए थे। जबकि खुद उनकी पार्टी भाजपा उनके नाम पर यानी ‘खंडूरी है जरूरी’ के नारे के साथ चुनाव लड़ रही थी। उस चुनाव में कांग्रेस 32 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी एक सीट से पिछड़ गई थी।

उत्तराखंड की पांचवीं विधानसभा के लिए हो रहे चुनाव में इस बार स्थिति 2017 से अलग है। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि अब मोदी लहर ऐसी नहीं कि एंटी-इनकमबेंसी के बावजूद बीजेपी को चुनाव जितवा दे। आम आदमी पार्टी चुनाव को त्रिकोणीय बना रही है तो बीएसपी भी कुछ सीटों पर मुकाबले में बताई जा रही है।

ऐसे में कोटद्वार सीट एक बार फिर 2012 की तरह निर्णायक साबित हो सकती है। यहां से इस बार खंडूरी की बेटी और यमकेश्वर की विधायक रही ऋतु खंडूरी बीजेपी के टिकट पर मैदान में हैं। उनके सामने हैं 2012 में उनकेे पिता खंडूरी को हराने वाले कांग्रेस के लोकप्रिय नेता सुरेंद्र सिंह नेगी। उनके मुकाबले ऋतु खंडूरी शुरुआत से ही कमज़ोर नज़र आ रही हैं, हालांकि उनके समर्थकों को लगता है कि ऋतु के समर्थन में शनिवार, 12 फ़रवरी को हुई यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की रैली के बाद स्थितियां कुछ बदली हैं।
गौरतलब है कि ऋतु खंडूरी 2017 में गढ़वाल की ही यमकेश्वर सीट से विधायक बनी थीं। लेकिन उनकी कमजोर परर्फोमेंस को देखते हुए पार्टी ने इस बार पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। बाद में गढ़वाल के कुछ भाजपा नेताओं की गुहार पर उन्हें कोटद्वार से टिकट दे दिया गया। कोटद्वार के मौजूदा विधायक डॉ हरक सिंह रावत के पार्टी से निष्कासन के बाद ही ऋतु खंडूरी को वहां से चुनाव लड़ाने का मौका मिल पाया। लेकिन पहले से यहां चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे भाजपा नेता धीरेंद्र चौहान इससे नाराज़ हो गए और निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए। पार्टी कार्यकर्ताओं की सहानुभूति भी धीरेंद्र चौहान के साथ थी।

दूसरी ओर, जन जन के बीच गहरी पैठ रखने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेता सुरेंद्र सिंह नेगी पिछले पांच साल से चुनाव की तैयारियों में लगे हुए थे। कोटद्वार के मतदाताओं पर उनकी पकड़ भी काफ़ी मजबूत बताई जाती है।
राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार, चुनाव प्रचार के आखिरी दिन हुई योगी आदित्यनाथ की चुनावी सभा के बाद ऋतु खंडूरी की थोड़ी बहुत पहचान बन पाई है। इसके बावजूद पार्टी कार्यकर्ताओं में धीरेंद्र चौहान का ही क्रेज़ देखने में आ रहा है।
कोटद्वार विधानसभा के मतदाताओं के मूड को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि ऋतु खंडूरी मज़बूत स्थिति में हैं। सियासत के जानकारों के हिसाब से कुल मिलाकर कांग्रेस उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह नेगी का पलड़ा ही भारी दिख रहा है। क्योंकि ऋतु खंडूरी उन्हें कोई खास चुनौती देती नज़र नहीं आ रही हैं।

लैंसडाउन विधानसभा सीट

पौड़ी गढ़वाल की लैंसडाउन विधानसभा सीट भी इस बार सुर्ख़ियों में है। यहां बीजेपी के दो बार के विधायक महंत दिलीप रावत को उत्तराखंड की राजनीति के सबसे माहिर खिलाड़ियों और सबसे चर्चित नेताओं में से एक डाॅ हरक सिंह रावत की पुत्रवधू और पूर्व ब्यूटी क्वीन अनुकृति गुसाईं निर्णायक चुनौती दे रही हैं।

दरअसल, कोटद्वार से लगती इस सीट का महत्व डाॅ हरक सिंह रावत की वजह से बढ़ गया है। तीन दशक से भी ज़्यादा समय से चुनावी राजनीति में सक्रिय डॉ हरक सिंह रावत अब तक सिर्फ़ एक विधानसभा चुनाव हारे हैं। वर्ष 2002, 2012 और 2017 में तो वह सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे ही, 2007 में बतौर नेता प्रतिपक्ष उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी हासिल रहा।

राज्य बनने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि वह चुनाव मैदान में नहीं हैं। अपनी पुत्रवधु अनुकृति गुसाईं को चुनाव लड़वाने के लिए वह बीजेपी में ज़ोर दे रहे थे। लेकिन इसी बीच बड़े नाटकीय घटनाक्रम में भाजपा ने डॉ रावत को पार्टी से निष्कासित कर दिया।अब उनका सारा राजनीतिक कौशल बहू अनुकृति गुसाईं को विधानसभा भेजने में कितना काम आता है, यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे। दूसरी ओर बीजेपी से अनुकृति गुसाईं के टिकट की मांग पर मौजूदा विधायक महंत दिलीप रावत ने खुलकर नाराज़गी जताई थी लेकिन आलाकमान ने उनकी नाराजगी को तवज्जो नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि अब अनुकृति उन्हीं के ख़िलाफ़ चुनाव मैदान में हैं।

अनुकृति गुसाईं को अपने पहले चुनाव में अपने ससुर के राजनीतिक प्रभाव का लाभ तो मिलेगा ही, अपने एनजीओ के माध्यम से किए गए जनसेवा के कार्यों का सुफल भी उनकी जीत को सुनिश्चित करने में मददगार बनेगा।

राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार, लैंसडाउन से दो बार के बीजेपी विधायक महंत दिलीप रावत की भी स्थिति अच्छी नहीं दिखाई दे रही है। उनके ख़िलाफ़ क्षेत्र में ज़बरदस्त इंटी-इनकमबेंसी की चर्चाएं चल रही हैं क्योंकि 10 साल में उनके क्षेत्र में ज़्यादा काम नहीं हो पाए हैं। ख़ासतौर से उनके विधानसभा क्षेत्र में सड़कों की बदहाली उनकी चुनावी जीत में रोड़े अटका सकती है।

कुल मिलाकर लैंसडाउन विधानसभा से अनुकृति गुसाईं की हार या जीत उनके राजनीतिक करियर की दिशा तो तय करेगी ही, डॉ हरक सिंह रावत के राजनीतिक भविष्य का भी फ़ैसला करेगी।

हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट

इस चर्चित सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत दो बार के विधायक और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री स्वामी यतीश्वरानंद को कड़ी चुनौती दे रही हैं।

गौरतलब है कि 2017 में मुख्यमंत्री रहते हुए हरीश रावत इस सीट से भी चुनाव लड़े थे लेकिन बसपा उम्मीदवार के वोट कटवा साबित होने के चलते हार गये थे। भाजपा के स्वामी यतीश्वरानंद वहां से विधायक बने थे। इस बार प्रचारित किया जा रहा है कि अनुपमा रावत अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए मैदान में हैं। चुनावी राजनीति की नब्ज़ पहचानने वाले समीक्षकों का मानना है कि
भले ही अनुपमा रावत हरिद्वार ग्रामीण सीट पर स्वामी यतीश्वरानंद को कांटे की टक्कर दे रही हैं, लेकिन उनके खिलाफ़ भी उनके पिता हरीश रावत की तरह रणनीति बनाकर उन्हें घेरने की कोशिश की जा रही है। इस बार भी बीएसपी ने एक मुसलमान उम्मीदवार को मैदान में उतारा है जिससे मुसलमानों का वोट बंटने का अंदेशा है, जिसका सीधा नुक़सान कांग्रेस को हो सकता है। इस कुचक्र के पीछे केंद्र में मंत्री रह चुके हरिद्वार के एक सांसद का हाथ बताया जा रहा है।

दूसरी ओर यह भी संभावना जताई जा रही है कि चूंकि इस बार ज़्यादातर मुस्लिम मतदाता भाजपा को हराने का मन बना चुके हैं, ऐसे में मुस्लिम वोटों का बंटवारा होने की बजाय इस बार कांग्रेस के पक्ष में उनका ध्रुवीकरण हो सकता है।

हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट पर मतदाताओं के रुझान का आकलन करने वालों का मानना है कि इस बार  80 फ़ीसदी मुस्लिम वोट अनुपमा रावत को जा सकता है। इसके अलावा वह अन्य वोटों में भी सेंध लगाएंगी। पहाड़ी मतदाता भी बड़ी संख्या में कांग्रेस उम्मीदवार के समर्थन में वोट कर सकते हैं।

समाजसेवी नवाज़ के अनुसार, सबसे बड़ी बात यह है कि इस बार मोदी लहर भी नहीं है जिसकी वज़ह से पिछले चुनाव में हरीश रावत समेत कई बड़े नेता हार गए थे। इसलिए भी चुनाव में इस बार कांटे का मुक़ाबला होता दिख रहा है।

जैसा कि लगभग तय है कि हरिद्वार ग्रामीण सीट से अगर अनुपमा रावत चुनाव जीत जाती हैं तो हरीश रावत की राजनैतिक उत्तराधिकारी के तौर पर उत्तराखंड की राजनीति में स्थापित हो जाएंगी। वरना इस बार के कड़े मुक़ाबले में उनकी हार कांग्रेस के लिए काफ़ी नुकसानदायक साबित हो सकती है।

गदरपुर विधानसभा सीट

गदरपुर से उत्तराखंड के स्कूली शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे चुनाव मैदान में हैं। इस सीट पर उन्हें कांग्रेस के प्रेमानंद महाजन और आम आदमी पार्टी के जरनैल सिंह काली चुनौती दे रहे हैं।

उत्तराखंड के कई चुनावी मिथकों में से एक यह भी है कि राज्य का शिक्षा मंत्री रहा नेता कभी अगला चुनाव नहीं जीत पाया है। अरविंद पांडे के सामने इस मिथक को तोड़ने की भी चुनौती है।

स्थानीय पत्रकार चंदन बंगारी ने बताया कि, गदरपुर सीट पर शिक्षा मंत्री को कांग्रेस उम्मीदवार प्रेमानंद महाजन से अच्छी चुनौती मिल रही है। उनके पक्ष में अच्छी बात यह है कि पार्टी के अंदर उनके ख़िलाफ़ कोई गुटबंदी नहीं है। लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस प्रत्याशी महाजन क्षेत्र में अच्छी-खासी तादाद में मौजूद बंगाली समुदाय से भी आते हैं। इसके अलावा गदरपुर उन सीटों में शामिल है जिन पर किसान आंदोलन का अच्छा असर पड़ा है।
वहीं, गदरपुर सीट पर आम आदमी प्रत्याशी जनरैल सिंह काली भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं और माना जा रहा है कि वह भी अच्छे खासे वोट बटोर सकते है

सल्ट विधानसभा सीट

अल्मोड़ा जिले की यह सीट कांग्रेस की राजनीति और ख़ासकर हरीश रावत की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाली सीट मानी जा रही है।
कांग्रेस ने काफ़ी उठापटक के बाद सल्ट से इस बार पार्टी के चार कार्यकारी अध्यक्षों में से एक रणजीत रावत को चुनाव मैदान में उतारा है। राजनीतिक हलकों में यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि किसी समय हरीश रावत के ख़ासमखास रहे रणजीत रावत अब उनके धुर विरोधी हैं।

गौरतलब है कि रणजीत रावत 2007 में सल्ट से विधायक बने थे, लेकिन 2012 और 2017 में बीजेपी के सुरेंद्र सिंह जीना के हाथों उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके बाद उन्होंने रामनगर का रुख़ किया और 2022 का चुनाव लड़ने के लिए वह पिछले पांच साल से रामनगर में सक्रिय थे। लेकिन कांग्रेस ने अपनी दूसरी लिस्ट जारी की तो रामनगर का टिकट हरीश रावत को दे दिया गया। हरीश रावत रामनगर से चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू करने ही वाले थे कि रणजीत रावत ने खुलकर नाराज़गी जताते हुए रामनगर से ही निर्दलीय उतरने की तैयारी में जुट गए।

हालात बिगड़ते देख कांग्रेस को संशोधित लिस्ट जारी करनी पड़ी जिसमें हरीश रावत को लालकुआं और रणजीत रावत को उनकी पुरानी सीट सल्ट से पार्टी उम्मीदवार घोषित किया गया।

सल्ट से रणजीत रावत को दो बार हराकर विधायक बने सुरेंद्र सिंह जीना का 2020 में कोरोना की वजह से निधन हो गया था। बीजेपी ने उनकी जगह उनके भाई महेश जीना को टिकट दिया था, जो अब विधायक होने के साथ ही पार्टी के उम्मीदवार भी हैं।
स्थानीय पत्रकारों के अनुसार, रणजीत रावत सल्ट में देर से और न चाहते हुए भले ही पहुंचें हों, लेकिन उनकी स्थिति वहां कमज़ोर नहीं है। वह महेश जीना को टक्कर दे रहे हैं और पासा किसी भी ओर पड़ सकता है।

कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति को देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सल्ट में रणजीत रावत की हार-जीत पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों के साथ ही हरीश रावत की भी नज़र रहेगी। अगर रणजीत रावत सल्ट से जीत जाते हैं तो वह पार्टी में हरीश रावत विरोधी खेमे की केंद्रीय धुरी बन सकते हैं और उनके इर्द-गिर्द असंतुष्ट नेताओं का ध्रुवीकरण हो सकता है। लेकिन अगर रणजीत रावत यह चुनाव हार जाते हैं तो राजनीतिक रूप से हरीश रावत म़जबूत हो जाएंगे और उनका विरोध करने वाले कोई भी क़दम उठाने से पहले कई बार सोचेंगे।

(वी एस चौहान के सौजन्य से, फोटो स्त्रोत: गूगल)

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