मुद्दा: क्या फैक्ट चेक यूनिट मौलिक अधिकारों का हनन है?
आज के दौर में न्यायपालिका की ओर से ऐसा दो टूक और साहसी हस्तक्षेप कभी-कभार ही होता है। इसके बीच फैक्ट चेक यूनिट खारिज करने के बॉम्बे हाई कोर्ट के ताजा फैसले को एक चमकती हुई मिसाल के रूप में देखा जाएगा।
सरकार की एजेंसी खबरों के फैक्ट चेक करे, यह सोच ही अतार्किक है। स्वाभाविक है कि ऐसी एजेंसी बनाने की सरकार की पहल को लेकर समाज में आरंभ से ही व्यग्रता देखी गई। यह आम समझ थी कि इस पहल के पीछे मंशा ऐसे तथ्यों को मीडिया से बाहर करना है, जो सरकार को असहज करने वाले हो सकते हैं। वर्तमान सरकार के दौर में फेक न्यूज और फैक्ट चेक विवादास्पद मुद्दे रहे हैं। ऐसे विवादों के क्रम में सरकार के अपने नज़रिए को अक्सर एकतरफा माना गया है। इसीलिए फैक्ट चेकर यूनिट बनाने की उसकी पहल को दुर्भावनापूर्ण भी समझा गया था। अब इन सभी आशंकाओं की बॉम्बे हाई कोर्ट ने पुष्टि कर दी है। उसने नए सूचना तकनीक कानून में संबंधित संशोधन को खारिज कर दिया है। सरकार के खिलाफ कथित फर्ज़ी ख़बरों और गलत सूचनाओं को रोकने के लिए बनाई गई तथ्य-जांच इकाइयों को अदालत ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है। अदालत ने यह उचित टिप्पणी की कि फैक्ट चेक यूनिट नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है।
फैक्ट चेक यूनिट बनाने की पहल को कॉमेडियन कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, न्यूज ब्रॉडकास्ट और डिजिटल एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स ने कोर्ट में चुनौती दी थी। पहले हाई कोर्ट की दो जजों वाली बेंच में जस्टिस गौतम पटेल और जस्टिस नीला के. गोखले ने अलग-अलग फैसला सुनाया। इसके बाद इस मामले को तीसरे यानी टाई ब्रेकर जज के पास भेजा गया था। तीसरे जज जस्टिस अतुल एस. चंदूरकर ने अपने निर्णय में सरकारी संशोधन को असंवैधानिक करार दिया। कहा कि यह संशोधन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 का उल्लंघन है। इस निर्णय से मीडियाकर्मियों के साथ-साथ आम नागरिकों को भी बड़ी राहत मिली है। फैक्ट चेक यूनिट सक्रिय हो जातीं, तो आशंका थी कि हर वैसी खबर कार्रवाई के दायरे में आ जाएगी, जिसमें सरकारी नैरेटिव हट कर अलग कहानी बताई गई हो।