मुद्दा: कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा आवश्यक है

बंबई के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में एक पुरुष सफाईकर्मी ने एक 25 वर्षीया नर्स अरुणा शानबाग के साथ यौन हिंसा की थी। नृशंस बलात्कार के बाद अपराधी ने उसे मरने के लिए छोड़ दिया। वह जीवित रही, पर उसका मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो गया, उसे लकवा मार गया और स्थायी रूप से चलने-फिरने में असमर्थ हो गयी। यह घटना 1973 में हुई थी। अगले 41 साल तक वह लगभग अचेत अवस्था में रही और अस्पताल के लोग उसकी देखभाल करते रहे। नगर निगम के दबाव के बावजूद उन्होंने उसे अस्पताल से नहीं हटाया। वहीं उसकी मौत हो गयी। कई लोगों से चिकित्सकीय सहायता से उसकी मृत्यु की पैरोकारी की, पर अदालत ने इसकी अनुमति नहीं दी।

शानबाग के मामले से देश में अप्रतिरोधी इच्छा-मृत्यु को वैधानिक मान्यता मिली। लेकिन जो उसने सहा, वह समाज पर हमेशा एक धब्बे के रूप में शर्मिंदगी का कारण बना रहेगा। कोलकाता के एक अस्पताल में हाल में एक प्रशिक्षु चिकित्सक के साथ नृशंस बलात्कार और उसकी हत्या से यह इंगित होता है कि 51 साल बाद भी कुछ खास नहीं बदला है। महिला डॉक्टर और नर्स अस्पताल के भीतर भी अपनी सुरक्षा को लेकर भय महसूस करती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि कार्यस्थलों पर महिला कर्मियों की सुरक्षा की चिंता एक गंभीर मसला है।
सुरक्षा का यह अभाव कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को प्रभावित करने वाले कारकों में एक है। भारत जी-20 समूह के उन देशों में है, जहां कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी दर सबसे कम है। वर्ष 2004 में यह लगभग 30 प्रतिशत थी, जो घटकर 2017 में 20 प्रतिशत हो गयी। कोविड के बाद इसमें कुछ सुधार आया है। इस कमी के अनेक कारण हैं। मांग पक्ष में समस्या यह है कि रोजगार देने वाले महिलाओं को काम नहीं देना चाहते। काम के अवसर भी समुचित गति से नहीं बढ़ रहे हैं। मातृत्व अवकाश का कानून महिलाओं की बेहतरी के लिए बनाया गया था, पर विडंबना यह है कि यह बाधक बन गया है। आपूर्ति पक्ष में सामाजिक एवं सांस्कृतिक कायदे ऐसे कारक हैं, जो औरतों को घर के बाहर काम करने से रोकते हैं। उनके लिए घर के कामों और बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल को वरीयता दी जाती है।
महिलाएं घर के लगभग 90 प्रतिशत काम करती हैं, जिसमें उन्हें मेहनताना भी नहीं मिलता। यह अनुपात महिलाओं के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हुआ है। अफ्रीका और कई पश्चिमी देशों में यह अनुपात अधिक समान है, पर दक्षिण एशिया में ऐसा नहीं है। महिलाएं कृषि कार्यों में भी अधिक सक्रिय हैं, जहां उनका काम नजर नहीं आता और उसका मेहनताना भी नहीं मिलता।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, बीते चार सालों में यौन अपराधों में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। असली आंकड़ा इससे कहीं अधिक है क्योंकि बहुत से अपराधों को बदले की आशंका, पीड़ित के कथित अपमान तथा पुलिस जांच पर भरोसा नहीं होने के कारण रिपोर्ट नहीं किया जाता है। कोलकाता के उसी अस्पताल में 2001 में हुए बलात्कार के मामले में दिखता है कि कैसे जांच को भटकाया गया और दोषी को दंडित नहीं किया गया। पीड़िता को दोष देने का रवैया तथा स्त्री-विरोधी सोच भी महिलाओं को शिकायत दर्ज कराने से रोकते हैं।
असम के सिल्चर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में छात्राओं और महिला डॉक्टरों से अनुरोध किया गया था कि वे अंधेरा होने के बाद बाहर न निकलें। यह उस सामाजिक मनोवृत्ति का अकेला उदाहरण नहीं है, जिसका संदेश यह होता है कि महिलाओं को सतर्क रहना चाहिए क्योंकि बाहर बलात्कारी घूम रहे हैं। तनिका चक्रवर्ती और नफीसा लोहावाला ने 2021 के अपने शोध पत्र में कार्यबल में महिला भागीदारी पर हिंसा के भय के असर का आकलन किया है। उन्होंने रेखांकित किया है कि एक जिले में जब एक हजार महिलाओं में से एक के विरुद्ध अपराध होता है, तो लगभग 32 महिलाएं श्रमबल में आने का इरादा छोड़ देती हैं। इसका अर्थ यह है कि केवल अपराध ही नहीं, यह हिंसा का भय भी महिलाओं को औपचारिक क्षेत्र में काम करने में आड़े आ सकता है। यह एक तरह की अपने ऊपर स्वयं थोपी गयी रोक है। विडंबना यह है कि कॉलेजों एवं उच्च शिक्षा में स्त्री नामांकन बढ़ रहा है तथा उनका प्रदर्शन भी बहुत अच्छा है। अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में महिला नामांकन का हिस्सा 50 प्रतिशत से अधिक है, पर प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों में महिलाओं का हिस्सा 15 प्रतिशत से कम है। यह एक राष्ट्रीय नुकसान है। ऐसा केवल बच्चे और परिवार की देखभाल के कारण ही नहीं, बल्कि कार्यस्थल पर सुरक्षा के मुद्दे के कारण भी हो सकता है।
निर्भया मामले के बाद यौन हिंसा के विरुद्ध कानूनों को कठोर बनाया गया था। बच्चों के विरुद्ध अपराधों के लिए भी कड़े प्रावधान हैं। पर कानून अपराधों को बढ़ने से रोक नहीं पाये हैं। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा का बढ़ना केवल अधिक सुरक्षा मुहैया कराने और न्याय पाने का ही मामला नहीं है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। महिलाओं की भागीदारी कम होने के साथ मेहनताने में लैंगिक अंतर का मसला भी जुड़ा हुआ है। ऐसे में यह समस्या बहुत गंभीर हो जाती है। यदि इन दोनों मुद्दों पर समुचित ध्यान दिया जाए, तो रोजगार, कमाई और उत्पादन में बड़ी बढ़ोतरी होगी। भारत अपनी आधी मानव पूंजी की प्रभावी वृद्धि क्षमता की अनदेखी कर रहा है। औपचारिक रोजगार में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के कई तरीके हैं। मसलन, जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ‘महिला अर्थशास्त्र’ को बढ़ावा दिया, जिसमें सरकार ने उच्च गुणवत्ता के पांच लाख क्रेच की स्थापना की।
भारत में भी महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए कानूनी, वित्तीय और सामाजिक नीतियां होनी चाहिए। कुछ रोजगार को अनिवार्य रूप से महिलाओं के लिए आरक्षित किया जा सकता है, उनके लिए मुफ्त यातायात की व्यवस्था की जा सकती है या उन्हें आयकर से छूट दी जा सकती है। सांस्कृतिक आचरण ऐसा हो, जिससे महिलाओं को स्वतंत्र निर्णय लेने में अधिक स्वायत्तता मिले तथा पारिवारिक संबंधों से परे उनकी एक स्वतंत्र पहचान को मान्यता प्राप्त हो। लेकिन सबसे पहले हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कार्यस्थल की सुरक्षा मुख्य चिंता होनी चाहिए। यदि महिलाएं हर समय कार्यस्थल पर या सार्वजनिक जगहों पर यौन हिंसा के खतरे को लेकर परेशान रहेंगी, तो यह कार्यबल में उनकी भागीदारी की राह में हमेशा एक नकारात्मक कारक बना रहेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। )