संविधान: देश पर ‘हत्या दिवस’ जैसे नामकरण थोपना असंवैधानिक है
शंकर शरण
आरएसएस प्रशिक्षित नेताओं में विचित्रता तरह-तरह रूपों में दिखती है। बल्कि अधिकांश रूप में विचित्रता ही दिखती है! उन के बयानों, घोषणाओं, और कदमों, गतिविधियों से इस की लंबी सूची बनाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, विगत एक निश्चित अवधि में उन की पहली ऐसी घोषणा और नवीनतम कदम को लें।
पहली थी गंभीर संवैधानिक पदों से घोषणा करना कि उन्हें ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाना है। यह घोषणा संविधान-विरोधी तथा करोड़ों देशवासियों के प्रति अपमानजनक थी। संविधान में दूर-दूर कोई संकेत तक नहीं कि किसी संवैधानिक पदधारी को किसी वैध राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन को मिटा देने का प्रयत्न करना है। अत: वह घोषणा ही साफ संविधान-विरोधी थी।
दूसरे, वह करोड़ों कांग्रेस-समर्थक देशवासियों का अपमान भी था जब उन के समर्थित दल को मिटाने की घोषणा संवैधानिक पदधारी कर रहे थे! संवैधानिक पदधारी पूरे देश की संपूर्ण जनता के लिए हैं। उसे केवल अपने दल की हवा बांधने का काम संविधान ने नहीं दिया है। तब उन पदधारियों ने कहां से समझ लिया कि उन्हें करोड़ों नागरिकों की पसंद के एक राजनीतिक दल को मिटा देने का लक्ष्य रखना है? ऐसी सार्वजनिक घोषणा, ऐसा विचित्र डफ कर्म वही कर सकता है, जिसे संविधान, नैतिकता और शिष्टाचार की समझ नहीं है। यह समझ भी नहीं कि ऐसी अनावश्यक, दंभी घोषणा भविष्य में उलटे अपने मुंह पर गोबर पड़ने की संभावना अपने हाथों से बनाना है- यदि वह दल मिटने के बजाए बढ़ जाए (जो अभी-अभी हुआ)। सामान्य नेता ऐसी घोषणाएं नहीं करते। केवल संघ-प्रशिक्षित असामान्य वर्ग में ऐसे मूढ़मति पनपते हैं जो लज्जा की बात पर गर्व करते, और ताली पीटते हैं।
वस्तुत: वह घोषणा अपने समर्थक मतदाताओं के प्रति भी अजूबा थी। जिन्होंने भाजपा को चाहे अन्य जिन चीजों के लिए भी मत दिया हो, उस में किसी दल को मिटा देने की बात नहीं थी। न उस चुनाव से पहले भाजपा के बयानों या घोषणापत्र में कहीं यह बात दर्ज थी, कि वे देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ करने का लक्ष्य रखते हैं। अत: निर्वाचित होकर संवैधानिक पद संभाल लेने के बाद एकाएक वैसी घोषणा भाजपा समर्थक मतदाताओं के लिए भी अप्रत्याशित थी। असंवैधानिक, अनावश्यक और फूहड़ तो थी ही।
अब उन की नवीनतम करनी को लीजिए। उसी कांग्रेस को निशाना बनाने के लिए उन्होंने एक ‘हत्या’ दिवस ही देश पर थोपा है! यह मूढ़ता की पराकाष्ठा है। सब से पहले तो मानव निर्मित कामकाजी नियमों की एक संहिता, जिसे वैधानिक रूप से रोज संशोधित किया, बल्कि आमूल बदला हटाया जा सकता है, उसे किसी जीवित मनुष्य सा मानकर ‘रक्षा’ और ‘हत्या’ जैसी शब्दावली उत्तेजक और बचकानी है।
क्योंकि यदि संविधान की ‘हत्या’ नामकरण उचित माना जाए, तब तो संविधान का हर संशोधन भी ‘अंग-भंग’ जैसा अपराध बनता है! जो अपराध खुद संघ-भाजपा के नेता गत वर्षों में सात बार कर चुके हैं। यानी, उन की रक्षा/हत्या शब्दावली में कहें तो, उन्होंने कभी संविधान की कोई ऊंगली काट दी, कभी उस के केश नोच लिए, कभी आंख में लकड़ी डाली, तो कभी घुटना घायल कर दिया। आखिर, यदि संविधान की ‘हत्या’ हो सकती है, तो उस की चमड़ी उधेड़ी जा सकती है, उस के कान काटे जा सकते हैं, उसे लंगड़ा बनाया जा सकता है, आदि। अत: संविधान जैसी कागजी निर्जीव वस्तु के लिए ‘हत्या’ शब्द ही अनुचित है।
दूसरे, ऐसे नाम का औपचारिक अनुष्ठान सब पर थोपना बच्चों-किशोरों-युवाओं की नई पीढ़ी की संवेदनाओं पर आघात है, जिसे ‘हत्या’ जैसी उत्तेजक चीज मनाने, दुहराने के लिए मजबूर किया जा रहा है। वह भी किस लिए? ताकि एक दल द्वारा प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल को निरंतर बदनाम करने का क्षुद्र उद्देश्य प्राप्त हो सके। ऐसे निम्न कोटि के दलगत स्वार्थ साधने में कोई राष्ट्रीय हित नहीं है। बल्कि कच्चे दिमाग दलीय कार्यकर्ताओं में आवेश, उग्रता बढ़ाकर उलटे देश समाज की हानि करना है।
तीसरे, यदि यह ‘हत्या’ पचास साल पहले हुई थी, तो संघ-भाजपा नेताओं को यह हत्या दिवस मनाने का विचार अब तक क्यों नहीं आया? मानो, अपने घर में कोई हत्या होने और उस की जानकारी रहने के बावजूद, कोई मजबूत सामंत उस की एफआईआर पचास साल बाद दर्ज कराए! ऐसी करनी स्वत: संदिग्ध हो जाती है। सो, गत पांच दशकों में न तो दल या संगठन के रूप में, न जब-जब वे सत्तासीन हुए, तब सत्तातंत्र द्वारा भी संघ-भाजपा महाप्रभुओं ने पहले कभी संविधान ‘हत्या’ दिवस क्यों नहीं थोपा? इस का उत्तर यही है कि न तो कोई संविधान हत्या हुई थी, न पचास साल पहले की उस घटना के प्रति देश की जनता में कोई स्थायी नाराजगी थी। (बल्कि तात्कालिक नाराजगी भी संपूर्ण देश में नहीं थी। तमिलनाडु, आंध्र, असम, आदि कई राज्यों में 1975-77 के आपातकाल के समय और तत्काल बाद भी कांग्रेस का समर्थन पहले से बढ़ा या यथावत था।) इस का सब से बड़ा प्रमाण यह कि आपातकाल के पांच वर्ष ही बाद, 1980 में, जनता ने भारी बहुमत से उसी कांग्रेस को पुन: केंद्रीय सत्ता में प्रतिष्ठित कर दिया। बाद में भी, लंबे-लंबे समय कांग्रेस सत्ता जन-समर्थन से बनती रही है।
तब, आज पचास साल बाद, उस प्रसंग को उत्तेजक नाम देकर देश पर थोपने की कोशिश संघ-भाजपा नेताओं की मूढ़ता ही दिखाती है। जिन्हें समझ नहीं कि ऐसी संकीर्ण पार्टी-बंदी व दलीय-स्वार्थ पूरे देश पर जबरन थोपने की कोशिश संभवत: उल्टी प्रतिक्रिया जगाएगी। कांग्रेस के प्रति लोगों में सहानुभूति तथा भाजपा के प्रति वितृष्णा बढ़ाएगी, क्योंकि ऐसे अनुचित, क्षुद्र कदमों की वास्तविक मंशा किसी को भी शीशे की तरह साफ दिखती है।
चौथे, इस बेचारे निर्जीव संविधान को किसी अमर देवता जैसा दिखाने की कोशिश भी मूढ़ता है। इसलिए भी, क्योंकि इस के कथित जनक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान बनने-लागू होने के तीन ही वर्ष बाद इसे “किसी काम का नहीं” बता कर “इसे जला देने के लिए आगे बढ़ने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा” कहा था। वह भी संसद में, दो बार, लंबे अंतराल के साथ, ठसक से कहा था। डॉ. अम्बेडकर ने इस संविधान को “जला कर” नष्ट कर देना चाहने की बात दो सितंबर 1953 और 19 मार्च 1955, दोनों बार संसद में ही कही थी। वह भी कारण बताकर। इस से उन की गंभीरता झलकती है। यानी, वह कोई क्षणिक आवेश में कही गई हलकी बात नहीं थी।
उसी बयान में डॉ. अम्बेडकर ने इस संविधान को बनाने की अपनी जिम्मेदारी से भी इनकार किया था। उन्होंने दो सितंबर 1953 को संसद में अपने वक्तव्य में कहा था कि उन्हें इस संविधान का निर्माता कहना गलत है। क्योंकि वे इस में लिखी बहुतेरी बातों के विरुद्ध थे। पर जिसे उन्होंने मात्र किसी लिपिक (‘हैक’) की तरह लिखा, क्योंकि संविधान सभा के अन्य लोगों ने वही सब तय किया था।
अत: ऐसे संविधान को ‘धर्मग्रंथ’ कहना, और फिर इसे देवता जैसा पूजनीय बताना, और झूठ-मूठ इसे सदैव डॉ. अम्बेडकर की देन बताना, और अब इस का कोई ‘हत्या दिवस’ मनाने के लिए देश को मजबूर करना- यह सब विचित्रता और अज्ञान के एक से एक बढ़कर नमूने हैं। जिस का दयनीय प्रदर्शन केवल संघ-प्रशिक्षित नेता लोग ही कर सकते हैं। इतना दिमागी खालीपन और मूढ़ आत्मविश्वास किसी अन्य दल के नेताओं में मिलना कठिन है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)