चिंतन: भारत में छायादार पेड़ों की तादाद में चिंताजनक गिरावट
देवेन्द्रराज सुथार
हाल ही में नेचर सस्टेनेबिलिटी जर्नल में प्रकाशित कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के चौंकाने वाले निष्कर्षों ने भारत में छायादार पेड़ों की चिंताजनक गिरावट पर गहरा प्रकाश डाला है। पिछले पांच वर्षों में भारतीय खेतों से नीम, महुआ, जामुन और शीशम सहित लगभग 53 लाख छायादार पेड़ गायब हो गए। दरअसल, धान की पैदावार बढ़ाने के लिए किसान इन पेड़ों को बाधा मान रहे हैं और इसलिए इन्हें तेजी से साफ कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि शोधकर्ताओं ने भारतीय खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का मानचित्र तैयार किया है। इसके अनुसार भारत में जंगल और वृक्षारोपण के बीच अंतर बहुत साफ नहीं है, लेकिन इतना जरूर स्पष्ट है कि इस भूमि उपयोग में गत पांच वर्षों के दौरान मौजूद पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा शामिल नहीं है, जो खेतों से लेकर शहरी क्षेत्रों में बिखरे थे। शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गई। इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है। यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गई। अध्ययन के दौरान इन पेड़ों की 10 वर्षों तक निगरानी की गई। मध्य भारत में विशेष तौर पर तेलंगाना और महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर इन विशाल पेड़ों को नुकसान पहुंचा है। 2010-11 में मैप किए गए करीब 11 फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे। हालांकि इस दौरान कई हॉटस्पॉट ऐसे भी दर्ज किए गए, जहां खेतों में मौजूद आधे (50 फीसदी) पेड़ गायब हो चुके हैं।
यह चिंताजनक है क्योंकि देश की 56 प्रतिशत भूमि कृषि के लिए है और केवल 20 प्रतिशत वन के रूप में वर्गीकृत है। कृषि क्षेत्रों में हरियाली बनाए रखने और यहां तक कि विस्तार करने की महत्वपूर्ण क्षमता है। हालांकि, छायादार पेड़ों को हटाकर इस क्षमता को व्यवस्थित रूप से कम किया जा रहा है, जो न केवल गर्मी से राहत देने के लिए बल्कि जैव विविधता को बनाए रखने और जलवायु को स्थिर करने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। वनों की कटाई के परिणाम पहले से ही स्पष्ट हैं। शहरी क्षेत्र अपनी प्राकृतिक छटा से वंचित होकर भीषण गर्मी में झुलस रहे हैं। पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने, कृषि स्थिरता सुनिश्चित करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद छायादार पेड़ों को नष्ट करना मूर्खता ही है। वे पक्षियों, कीड़ों और अन्य वन्यजीवों की कई प्रजातियों के लिए आवास प्रदान करते हैं। उनकी जड़ें मिट्टी के कटाव को रोकने, मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने और जल संरक्षण में सहायता करती हैं। इन पेड़ों को काटकर हम न केवल तात्कालिक कृषि पर्यावरण को बाधित कर रहे हैं बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता को भी खतरे में डाल रहे हैं। वहीं अधिक बर्फ पिघलने से समुद्र के किनारे स्थित शहरों के डूब जाने का भय भी उत्पन्न हो गया। मानव प्रदूषण जनित गैसों से अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करने से बीमारियों का शिकार हो रहा है।
पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह खेती के तौर तरीकों में बदलाव आ रहा है वह न केवल पर्यावरण बल्कि किसानों के लिए भी हितकारी नहीं है। ऐसे ही बदलावों में से एक है खेतों से नीम, अर्जुन और महुआ जैसे छायादार पेड़ों का गायब होना। ये पेड़ पर्यावरण के साथ-साथ खेतों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं, फिर भी इनकी निगरानी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। पेड़ों के साथ इनसे जुड़ी सांस्कृतिक परंपराएं भी गायब होती जा रही हैं। अब ना उनकी स्थापित परंपराओं के अनुसार पूजा होती है और ना ही सावन के झूले पड़ते हैं। इसके अलावा छायादार वृक्षों की अंधाधुंध कटाई कृषि पद्धतियों में अल्पकालिक सोच को भी दर्शाती है। हालांकि फसल उत्पादन में वृद्धि से तात्कालिक लाभ फायदेमंद लग सकता है, लेकिन दीर्घकालिक पर्यावरणीय लागत गंभीर है। मृदा क्षरण, जैव विविधता की हानि और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती समस्या ऐसे कुछ गंभीर परिणाम हैं जिनका सामना आने वाली पीढ़ियों को करना पड़ेगा। इस संकट से निपटने के लिए इन पेड़ों को उनकी कृषि प्रणालियों में एकीकृत करने वाली कृषि वानिकी प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सरकारी नीतियों को छायादार पेड़ों के संरक्षण और रोपण को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिससे टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने के इच्छुक किसानों को वित्तीय और तकनीकी सहायता मिल सके। बढ़ते तापमान के बावजूद शहर रहने योग्य बने रहें, यह सुनिश्चित करने के लिए शहरी नियोजन को हरित स्थानों को प्राथमिकता देनी चाहिए। भारतीय खेतों से छायादार वृक्षों का लुप्त होना एक गंभीर मुद्दा है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। वृक्षों के बिना मानवीय जीवन की कल्पना अधूरी है। वृक्ष हमें केवल शुद्ध प्राणवायु ही नहीं प्रदान करते हैं बल्कि स्वास्थ्यवर्धक फल-फूल, इमारती लकड़ियां, छाल-पत्ते से लेकर गुणकारी औषधियां भी उपलब्ध कराते हैं।
इन औषधियों का आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान में बड़ा ही महत्व है। सरकार द्वारा देशभर में प्रति वर्ष वृक्षारोपण अभियान के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर पौधे लगाए जाते हैं। मगर पौधारोपण के बाद पांच प्रतिशत पौधे भी कहीं सुरक्षित नहीं रह पाते हैं। सरकार पौधारोपण के समय विज्ञापन के लिए फोटो खींचकर अपने रिकॉर्ड में उसे सुरक्षित कर लेती है, मगर वन क्षेत्र का रिकॉर्ड इसके मुकाबले कहीं सुरक्षित नहीं दिखता है। अगर वाकई में सरकार का उद्देश्य वन क्षेत्र में वृद्धि करना है, तो हमें खानापूर्ति की प्रवृत्ति को छोड़कर प्राकृतिक पुनरुत्पादन विधि पर जोर देना होगा। इस विधि के तहत जहां वन क्षेत्र बढ़ाना है उस क्षेत्र को फेंसिंग कर चराई और आवागमन निषिद्ध किया जाता है। इस तरह के क्षेत्र में चिड़ियों के बीट, पूर्व में वहां बिखरे पशुओं के मल में बीज तथा हवा पानी के साथ आए हुए बीज संबंधित क्षेत्र में जमा होते रहते हैं और इसके अंकुरण से नए पौधे पनपने लगते हैं। यहां पौधे के बढ़ने तक किसी को विचरण करने नहीं दिया जाता, ताकि पौधे को किसी प्रकार से नुकसान न हो। बारिश और ठंड तक नए पौधे को यदि इस प्रकार सुरक्षित रख लिया जाए, तो गर्मी में इसे कम पानी में भी जीवित रखा जा सकता है, क्योंकि पौधों में किसी प्रकार से छेड़खानी नहीं होने पर इसकी वृद्धि अत्यंत तेजी से संभव है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
विमर्श: बेहद जरूरी है संकटग्रस्त जैव प्रजातियों का संरक्षण
योगेश कुमार गोयल
जीव-जंतु तथा पेड़-पौधे भी मनुष्यों की ही भांति ही धरती के अभिन्न अंग हैं लेकिन मनुष्य ने अपने निहित स्वार्थों तथा विकास के नाम पर न केवल वन्यजीवों के प्राकृतिक आवासों को बेदर्दी से उजाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है बल्कि वनस्पतियों का भी तेजी से सफाया किया है। धरती पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त उन सभी चीजों का आपसी संतुलन बनाए रखने की जरूरत होती है, जो उसे प्राकृतिक रूप से मिलती हैं। इसी को पारिस्थितिकी तंत्र या इकोसिस्टम भी कहा जाता है लेकिन चिंतनीय स्थिति यह है कि धरती पर अब वन्य जीवों तथा दुर्लभ वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का जीवन चक्र संकट में है। वन्यजीवों की असंख्य प्रजातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। पर्यावरणीय संकट के चलते जहां दुनियाभर में जीवों की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने से वन्य जीवों की विविधता का बड़े स्तर पर सफाया हुआ है, वहीं हजारों प्रजातियों भाग्य से ज्यादा कर्म को महत्व देता हो। जो भागना नाही जागना सिखाए। साधनों कि बजाय साधना में मन लगाए। जिससे मिलने से व्यथा व्यवस्था में, कोलाहल मौन में एवासना उपासना में बदल जाए। जो कान नहीं प्राण फूंकने वाला हो। वैसे तो माता-पिता और आचार्य भी गुरु है। पर इनका दायरा सीमित है। थोड़े समय बाद ये तीनों साथ छोड़ देते है। लेकिन दीक्षा गुरु लोक से परलोक तक आपका साथ निभाते है, जन्म जन्मान्तर के क्लेश मिटा देते है। व्यक्ति की जिन्दगी दो भागो में बंट जाती है-गुरु से मिलने से पहले और गुरु से मिलने के बाद के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यही स्थिति वनस्पतियों के मामले में भी है।
वन्य जीव-जंतु और उनकी विविधता धरती पर अरबों वर्षों से हो रहे जीवन के सतत् विकास की प्रक्रिया का आधार रहे हैं। वन्य जीवन में ऐसी वनस्पति और जीव-जंतु सम्मिलित होते हैं, जिनका पालन-पोषण मनुष्यों द्वारा नहीं किया जाता। आज मानवीय क्रियाकलापों तथा अतिक्रमण के अलावा प्रदूषण वातावरण और प्रकृति के बदलते मिजाज के कारण भी दुनियाभर में जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों के अस्तित्व पर दुनियाभर में संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हिन्दी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित अपनी पुस्तक प्रदूषण मुक्त सांसें में मैंने विस्तार से यह उल्लेख किया है कि विभिन्न वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की संख्या में कमी आने से समग्र पर्यावरण किस प्रकार असंतुलित होता है। दरअसल विभिन्न वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की संख्या में कमी आने से समग्र पर्यावरण जिस प्रकार असंतुलित हो रहा है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना है। पर्यावरण के इसी असंतुलन का परिणाम पूरी दुनिया पिछले कुछ दशकों से गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देख और भुगत भी रही है।
लगभग हर देश में कुछ ऐसे जीव-जंतु और पेड़-पौधे पाए जाते हैं, जो उस देश की जलवायु की विशेष पहचान होते हैं लेकिन जंगलों की अंधाधुंध कटाई तथा अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते जीव-जंतुओं के आशियाने लगातार बड़े पैमाने पर उजड़ रहे हैं, वहीं वनस्पतियों की कई प्रजातियों का भी अस्तित्व मिट रहा है। हालांकि जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों की विविधता से ही पृथ्वी का प्राकृतिक सौन्दर्य है, इसलिए भी लुप्तप्राय: पौधों और जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना पर्यावरण संतुलन के लिए भी बेहद जरूरी है। इसीलिए पृथ्वी पर मौजूद जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तथा जैव विविधता के मुद्दों के बारे में लोगों में जागरूकता और समझ बढ़ाने के लिए प्रति वर्ष 22 मई को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाया जाता है। 20 दिसम्बर 2000 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्ताव पारित करके इसे मनाने की शुरूआत की गई थी। इस प्रस्ताव पर 193 देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। दरअसल 22 मई 1992 को नैरोबी एक्ट में जैव विविधता पर अभिसमय के पाठ को स्वीकार किया गया था, इसीलिए यह दिवस मनाने के लिए 22 मई का दिन ही निर्धारित किया गया।
धरती पर पेड़-पौधों की संख्या बड़ी तेजी से घटने के कारण अनेक जानवरों और पक्षियों से उनके आशियाने छिन रहे हैं, जिससे उनका जीवन संकट में पड़ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि यदि इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां विलुप्त होकर सदा के इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन जाएंगी। माना कि धरती पर मानव की बढ़ती जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति के लिए विकास आवश्यक है लेकिन यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो। प्रदूषण मुक्त सांसें पुस्तक में चेतावनी देते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि विकास के नाम पर वनों की बड़े पैमाने पर कटाई के साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पक्षियों से उनके आवास छीने जाते रहे और ये प्रजातियां धीरे-धीरे धरती से एक-एक कर लुप्त होती गई तो भविष्य में उससे उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं और खतरों का सामना हमें ही करना होगा।
दरअसल बढ़ती आबादी तथा जंगलों के तेजी से होते शहरीकरण ने मनुष्य को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वह प्रकृति प्रदत्त उन साधनों के स्रोतों को भूल चुका है, जिनके बिना उसका जीवन ही असंभव है। आज अगर खेतों में कीटों को मारकर खाने वाले चिड़िया, मोर, तीतर, बटेर, कौआ, बाज, गिद्ध जैसे किसानों के हितैषी माने जाने वाले पक्षी भी तेजी से लुप्त होने के कगार हैं तो हमें आसानी से समझ लेना चाहिए कि हम भयावह खतरे की ओर आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब समय रहते सचेत हो जाना चाहिए।
जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवनयापन के योग्य बनाती है, इसलिए लुप्त प्राय: पौधों और जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना पर्यावरण संतुलन के लिए भी बेहद जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)