खान-पान: पारदर्शी निगरानी व्यवस्था के दायरे में आना चाहिए रेडीमेड फूड उद्योग
ऋतुपर्ण दवे
यूं तो सोशल मीडिया पर सचेत करते हुए कई वीडियो और दावे सामने आते रहते हैं, लेकिन कितने सच होते हैं, यह सामान्यतया कोई भी नहीं कह सकता।
हालांकि कभी-कभी कोई ऐसा वीडियो सामने आ जाता है जो विचलित कर देता है और अक्सर लोग सच्चाई जाने बिना ही भरोसा कर बैठते हैं। ऐसा ही एक वीडियो बीते दिनों बहुत तेजी से वायरल हुआ जिसमें हरी टी शर्ट पहना एक छोटा बच्चा जो कि किसी मेले में दिख रहा है। एक दूकानदार से गिलास में कुछ लेता है जिसमें बहुत तेज सफेद और गाढ़ा धुआं निकलता है। बच्चा उसे पीता है और तुरंत पेट पकड़कर चीखने-चिल्लाने लगता है। बच्चे को तुरंत चिकित्सकीय मदद पहुंचाई गई। बहरहाल, वीडियो की सत्यता=असत्यता से परे हटकर सोचें तो अगर वाकई में ऐसा है तो हम सभी को गंभीरता से इस बारे में सोचने की जरूरत है।
वीडियो में दिख भी रहा है कि उस पर स्मोक बिस्किट लिखा है। आजकल ऐसे पदार्थ खाने को सजावटी आकार देने के साथ बच्चों में आकषर्ण बढ़ाने के लिए बनाना आम हो गया है, जिनमें ड्राई आइस या लिक्विड नाइट्रोजन का अनुपातहीन उपयोग आम सा हो गया है। भारत में इसका तेजी से पार्टियों या पिकनिक, मेलों में चलन बढ़ रहा है। वास्तविकता यह है कि बच्चा दावणगेरे में परिजनों के साथ एक प्रदर्शनी में गया था और उसने वहां पर एक स्टॉल से स्मोक बिस्किट लिया और उपयोग करते ही उसकी तबीयत बिगड़ गई। सुकून की बात है कि वीडियो के जरिए फैलाई जा रही मौत की बातें अफवाह निकलीं, लेकिन इस वीडियो ने कई सवाल जरूर पैदा कर दिए।
क्या आम दावतों, पार्टियों, चौपाटियों या चाट, पकौड़े, आईसक्रीम या ठण्डाई के नाम पर बिना किसी स्वीकृति के कुछ भी उपयोग की इजाजत है? और क्या भारत में कहीं भी कोई अपनी मनमर्जी से स्वाद या आकषर्ण बढ़ाने के लिए किसी भी प्रतिबंधित, घातक या अनुपातहीनमात्रा में मसाले, रसायन खाने में उपयोग कर सकते हैं? इस पर लोग कितना जागरूक हैं? स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह ऐसी चीजों के इस्तेमाल का क्या कोई तय पैमाना है और है तो इसका कैसे हो? सबको पता है कि पूरे देश में चाहे गांव, कस्बा, महानगर हर कहीं बाजार में तैयार खाने का चलन बहुत तेजी से बढ़ा है। देश में रेस्टॉरेन्ट, होटल और ढाबों में लोगों के शौकिया आना-जाना भी खूब बढ़ा है।
आउटिंग या बाहर खाने के चलन ने ऑनलाइन फुड को एक नई इंडस्ट्री की शक्ल दे दी, लेकिन सवाल यही कि आखिर बाजार में बिकने वाला रेडीमेड खाना स्वास्थ्य के लिहाज कितना मुफीद है? क्या इस तरह के खाना बनाने वाले ठिकानों और सप्लाई के लिए पहुंचाने के दौरान बनाने और खाने वालों के बीच खाने की गुणवत्ता में बदलाव या स्तरहीनता को परखने का कोई तंत्र है? शायद नहीं और हो भी तो लोगों ने कभी बीच सडक़ खाने की जांच होते या सैम्पलिंग देखी नहीं। ऐसे सवाल उठने वाजिब हैं। सडक़ों के किनारे ढाबे हों या बीच शहर के होटल या स्ट्रीट फूड की जगहें। कभी यहां नियमित जांच होती हैं या हुई लोगों को ध्यान नहीं आता। निश्चित रूप से ऐसी निगरानी उस क्षेत्र के जिला प्रशासन के अधीन होती हैं, लेकिन सवाल वही कि इस पर अमल कैसा होता है? जिस तेजी से बाहर खाने का चलन बढ़ रहा है और तैयार खाने का ऑनलाइन कारोबार बढ़ रहा है जो उद्योग की शक्ल अख्तियार कर रहा है।
तमाम तरह के टैक्स के दायरे में भी आता है परन्तु गुणवत्ता को लेकर किस तरह के निर्देश हैं या अमल करना है इस पर आम लोगों को कुछ पता नहीं होता। समय के साथ अब इस बात पर भी सख्त कानून बने और पालन में भी कठोरता की जाए ताकि रेडीमेड फूड उद्योग भी एक पारदर्शी निगरानी व्यवस्था के दायरे में आए। बना बनाया या बनाकर खाने के बेचने या पैक कर घर-घर पहुंचाने का रिटेल या थोक कारोबार हो या स्ट्रीट वेन्डर से लेकर पांच सितारा होटलें इनकी गुणवत्ता की जांच के लिए हर कहीं सूचना पटल हों। महानगरों, शहरों और दूकानों में बड़े-बड़े होर्डिंग, बैनर या पोस्टर अनिवार्य हों, जिनसे लोगों की इस बारे में जागरूकता बढ़े। हर दुकानदार, खाने की सामग्री बेचने वाले ठिकानों पर उस क्षेत्र के स्थानीय नियंत्रणकर्ता एजेंसी की जानकारी तथा संपर्क सूची भी लगाई जाए जहां पर गुणवत्ता में दोष की शिकायत की जा सके।
इतना ही नहीं विशेष परिस्थितियों में खाने के सैंपल को जांचने के लिए स्थानीय सरकारी विभाग भी तत्पर रहे। अब तक ऐसे गंभीर मामले या तो पुलिस के पास पहुंचते हैं या फिर हीला-हवाली में ही अपराध के बावजूद अनदेखे रह जाते हैं। खाने में कीड़े, कॉकरोच मिलने या खाकर बीमार पड़ने की शिकायतें तो सामने आती हैं, लेकिन कभी कोई कार्रवाई हुई हो ज्यादातर पता नहीं चल पाता। जिस तेजी से बने बनाए खाने के चलन के साथ बाहर खाने का रिवाज बढ़ रहा है उससे इस कारोबार पर भी बहुत कड़ी निगाह रखे जाने की जाने की जरूरत है। इसके लिए ऐसे कानून की जरूरत है जो देशव्यापी हो और सबको पता हो ताकि लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ के मामले बढ़ने से पहले ही नियंतण में रहें और जनस्वास्थ्य को बड़ी चुनौती का बेखौफ रिवाज जैसा चलन भी न पनप पाए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)