नज़रिया: मॉल संस्कृति के मझधार में हिचकोले खाता उपभोक्ता

राजेन्द्र कुमार शर्मा
हाट से मॉल कल्चर तक के सफर को हमने एक लंबे समय में तय किया है। याद करिए वो समय जब अलग-अलग सामान के लिए हमें अलग-अलग दुकानों पर जाना पड़ता था। पंसारी की दुकान, कपड़े की दुकान, तेल के लिए कोल्हू, आटे के लिए आटा चक्की, बेकरी उत्पाद के लिए कंफेक्शनरी शॉप पर, सौंदर्य प्रसाधन के समान के लिए कॉस्मेटिक शॉप पर, बर्तनों के लिए अलग शॉप, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के लिए अलग दुकान आदि-आदि ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जब हम बाजार में एक दुकान से दूसरी दुकान पर अपनी जरूरत की चीजें खरीदते हुए पूरे बाजार का भ्रमण कर लेते थे। धीरे-धीरे दुकानों की जगह सुपर बाजार या सुपरमार्केट ने ली जो हमारे जमाने के जनरल स्टोर की तरह होता था, जिसमें घर की सभी छोटी-मोटी चीजें एक ही जगह पर मिल जाती थी। धीरे-धीरे ये ही सुपर बाजार ही मॉल में परिवर्तित हो गए।
मॉल कल्चर वास्तव में लोगों की मानसिकता को ध्यान में रखकर ही बाजार में लाया गया है। मॉल को पूरी तरह से लोगों के आकर्षण का केंद्र बनाकर ही इसकी योजना की गई है। मॉल के बाहर ही खाने पीने की स्वादिष्ट गर्म, ठंडे, चटपटे व्यंजन ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करते है, मॉल अपने नाम के अनुसार हर छोटी चीज को बड़ा और ग्लैमर के साथ दिखाता है। यहां तक कि अपने नाम को भी, बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित करवाता है ताकि लोग दूर से पढ़ सकें और जान सकें कि यहां आसपास कोई मॉल है। अगर आप भी किसी भी मॉल में गए हों और आपने गौर फरमाया हो तो आपको वहां बहुत सी चीजें दिखाई देती है, जो बड़ी सरलता और सहजता से आपके नजर में आ जाती है। क्योंकि ये उस मॉल की विक्रय नीति का ही एक अभिन्न अंग है, वो उनकी रचना ही ऐसे करते है कि आपको नजर आते ही आपको उसे खरीदने की इच्छा होती है।
एक और महत्वपूर्ण बात जिस पर कम ही लोग गौर करते हैं, वो है मॉल में समय देखने के लिए घड़ी न होना। कोई भी मॉल में घड़ी नहीं होती है। इसका कारण है ग्राहक को समय की बंदिशों से दूर ले जाना। ताकि आप जब भी मॉल में जाएं तो आपको समय का आभास ही न हो और आप शॉपिंग करना तब तक जारी रखे जब तक आपकी जेब खाली न हो जाए। कभी अनुभव कीजिए, अगर आपको सौ रुपये का सामान लेना है तो आप मॉल में हजार रुपये खर्च करके आ जाते हैं। आप ऐसे समान भी खरीद लेते हैं जिसकी आपको जरूरत नहीं होती, पर उस पर लिखे कम मूल्यों को देखकर आप थोड़ा लालच में आ जाते हैं और ये सोचकर खरीद लेते हैं कि भविष्य में काम आएगी। अर्थात आप अपनी एक नई जरूरत भविष्य के लिए तैयार कर लेते हैं। जो आज तक आपकी जरूरी चीजों की सूची में नहीं थी।
मॉल कैसे ग्राहक को जेब से पैसा निकालते हैं और कैसे 100 रुपए की वस्तु को 200 रुपए में बेच देते हैं या आप खरीदने एक पेंट जाते हैं जबकि खरीद के 3-3 पेंट शर्ट आते हैं। इसे भी समझने की जरूरत है। कोई सामान आपको बाजार मे 400 में मिल सकता है। मॉल में उसकी कीमत 1000 दर्शाई जाएगी। साथ ही उस पर एक 50 प्रतिशत छूट का टैग लगा दिया जाएगा। इससे उसकी कीमत 500 हो जाएगी। आप छूट के इस जाल में आसानी से आ जाएंगे। यह आपको तब महसूस होगा जब आप बाजार में जाकर उसकी कीमत मालूम करेंगे। तब पता चलेगा कि जो सामान आपने छूट लेकर खरीदा है, बाजार में वह सामान बिना छूट के ज्यादा सस्ता है। इसी प्रकार एक वस्तु खरीदो तो एक फ्री पायो या तीन पेंट या शर्ट खरीदो बदले में 2 पेंट या शर्ट फ्री पायो।कुछ ऐसे टैग है कि देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से जाल में फंस जाए और होता भी यही, जबकि ग्राहक समझ ही नहीं पाता है कि कोई भी ब्रांड अपनी चीजें फ्री में नहीं देता और बिना मुनाफे के भी नहीं देता है। जैसे आपने एक शर्ट खरीदी, उस पर अंकित कीमत 2999 रुपए है, बाय वन गेट वन के अंतर्गत आपको एक शर्ट फ्री में दे दी गई। यानी की आपको एक शर्ट लगभग 1500 रुपए की पड़ी, जबकि बाजार में उसी शर्ट की कीमत 1000 रुपए से ज्यादा नहीं पड़ती सीधा मतलब है कि आप 2000 रुपए में दो शर्ट खरीद ही सकते थे परंतु बाय वन गेट वन के लालच में वो ही 2 शर्ट आपने 3000 रुपए में पड़ती है। मॉल के इस कल्चर से ब्रांड को मुनाफा तो होता ही है साथ ही उसकी सेल में वृद्धि होती है। क्योंकि एक शर्ट की जगह दो शर्ट खरीदी जाती हैं। इस प्रकार यह सामानों की बिक्री की एक विपणन नीति होती है जिसमें उच्च स्तरीय महंगे सामानों को सस्ते में खरीदने की लोगों की मानसिकता का लाभ उठाया जाता है।
इसी लिए मॉल कल्चर लोगों को खर्चिला बना रहा है। और लोग भी स्टेट्स के नाम पर आंख मिचकर पैसे खर्च कर देते है। रही सही कसर क्रेडिट कार्ड देकर बैंक प्रणाली ने पूरी कर दी। जेब में पैसा नही है तब भी कोई चिंता की बात नहीं ए प्लास्टिक मनी आपको आज खर्चों कल भरो का आॅप्शन देती है। पर कितना खर्चों इसकी मॉल में जाने के बाद कोई सीमा नहीं होती।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
