

अनिरूद्ध गुप्ता
आज दिल बहुत व्यथित है। मेरे दिल से निकला एक मर्म स्पर्शी लेख, मैं आप सबके साथ शेयर करना चाहता हूँ। लेख थोड़ा लंबा है, इसलिए दिल से पढ़ें और सोचें कि मैं गलत हूँ या सही । मैं कोई बहुत बड़ा बुद्धिजीवी नहीं हूँ फिर भी मैं ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ कह रहा हूँ। कुछ लोगों को छोड़ कर मैं उत्तराखंडी संस्कृति का बीड़ा उठाने वाले हर शख्स से कहता हूँ । कुछ लोगों ने मेरी बहुत सहायता की है, उनको दिल से धन्यवाद। मैं अनिरूद्ध गुप्ता (निर्माता – निर्देशक, गढ़वाली फ़िल्म ‘बौड़िगी गंगा’) हूं । मेरी फिल्म सिल्वर सिटी देहरादून में लगी हुई है और सिर्फ 3 दिन में सिनेमा हॉल वाले उसे हटाने के लिए बोल रहे थे। 3 दिन में सिर्फ 128 लोगों ने फिल्म देखी और आज तो हद हो गई सिर्फ 12 लोग थे । क्या देहरादून में सिर्फ इतने कम लोग हैं जो उत्तराखंडी फिल्मों से प्यार करते हैं? मैं देहरादून में फिल्म नहीं लगाना चाहता था क्योंकि मुझे आभास था कि वहां पर मुझे बहुत नुकसान होगा लेकिन फिर भी मैंने लगभग 1 लाख रुपये खर्च करके सिनेमा हॉल वाले से लड़ कर मल्टी प्लेक्स में फिल्म लगाई कि अब उत्तराखंडी फिल्मों का भी लेबल बढ़ना चाहिए। खुद रात भर जाग कर पूरे देहरादून में पोस्टर लगवाये, क्या मैं पागल हो गया हूँ? और आज जब सिनेमा हॉल वाला बोल रहा था कि आप फिल्म हटा लो नहीं तो 17000 रुपए पर शो के हिसाब से यानी 7 दिन के 7 शो के हिसाब से 119000 दो तब फिल्म लगाऊँगा । तब बड़ी मुश्किल से घनानंद भाई, गोपाल थापा जी , शिव पेन्यूली और रमेश नौडियाल के सहयोग से उनसे लड़ कर 29 तारीख तक शो लगाने की बात हुई।

उनका कहना था कि गढ़वाली लोग, गढवाली फिल्म नहीं देखना चाहते, तो आज बहुत गुस्सा आया। इसलिए नहीं कि मेरा 1 लाख डूब गया, न सिनेमा हॉल वाले की बात पर आया, गुस्सा आया देहरादून में रहने वाली गढ़वाली पब्लिक पर, गुस्सा आया उत्तराखंडी संस्कृति की फिल्मों को बढ़ावा देने वाले और उत्तराखंडी संस्कृति की बड़ी बड़ी बातें करने वालों पर। हम बाहर की पब्लिक को साइड भी कर दें तो, देहरादून में उत्तराखंडी फिल्मों, एल्बमों आदि से जुड़े कम से कम 2-3 हजार लोग होगें, जिनमें निर्माता, निर्देशक, छोटे बड़े कलाकार, सिंगर, संगीतकार आदि कला विधा से जुड़े 2-3 हजार से ज्यादा ही होगें। अगर सभी लोग अपने साथ 1-2 लोगों को फिल्म दिखाने लाते तो शायद किसी भी थियेटर वाले की हिम्मत नहीं होती कि वो उत्तराखंडी फिल्मों को न लगाये । लेकिन यहाँ संस्कृति की बातें सोशल मीडिया में सभी बहुत करते हैं, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप खूब लगाते हैं, लेकिन अगर वो फिल्म में नहीं हैं तो फिल्म देखने नहीं जायेंगे, या जब तक उन्हें स्पेशल आमंत्रित न किया जाय तब तक नहीं जायेंगे, अरे मैं कहता हूँ कि अगर आप फिल्म का हिस्सा नहीं हैं तो क्या आपकी संस्कृति वाहक होने के नाते ये जिम्मेदारी नहीं है कि फिल्म की पब्लिसिटी करें, खुद तो जायें और 10 लोगों को फिल्म देखने के लिए प्रोत्साहित करें ? तभी आप दिल से असली उत्तराखंडी फिल्मों और संस्कृति के रक्षक कहलाने योग्य होंगे। और बात मै सिर्फ अपनी फिल्म की नहीं कर रहा हूँ बल्कि सभी उत्तराखंडी फिल्मों की कर रहा हूँ। हमें आपसी बैर छोड़कर बिना किसी के स्पेशल आमंत्रण दिये, अपना ईगो छोड़ कर सभी उत्तराखंडी फिल्मों को जरूर देखना चाहिये और सभी को देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । तभी इस फ़िल्म इंडस्ट्री का भाग्य बदल सकता है, वरना जैसे इतने सालों तक था वैसा ही कई सालों तक रहेगा । जब हिंदी फिल्म लगती है तो सब, सभी मतभेद छोड़कर, पूरे परिवार के साथ 200-300 का टिकट लेकर फिल्म का आनंद लेते हैं तो क्या उत्तराखंडी होने के नाते 100 रुपये खर्च नहीं कर सकते हैं ? और कौन सा हमारी फिल्में साल में 20-25 बनती हैं। बड़ी मुश्किल से साल भर में 1-2 फिल्म सिनेमा घर तक पहुँच पाती है और उसके साथ भी हम लोग इतना दुर्व्यवहार करते हैं, ये बहुत शर्मनाक है।

मैं आज की जेनरेशन को एक संदेश देना चाहता हूँ, और उनको जवाब देना चाहता हूँ, जो खुद कुछ करते नहीं हैं और जब कोई करता है तो उसमें एेसे कमियाँ निकालते हैं जैसे उनसे बड़ा फिल्मी जानकार कोई नहीं है। खुद को यश चोपड़ा और करन जौहर से कम नहीं समझते । अभी 30 तारीख़ से सिनेमाघर में बाहुबली फेम प्रभास की हिंदी फिल्म लग रही है और मैं जानता हूँ कि उसे देखने के लिए सभी लोग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं ।और आप सभी उसे देखने के लिए सिनेमाघर में टूट पड़ेंगे। वो फिल्म बहुत अच्छी होगी और हिट होगी। और होनी भी चाहिए, क्योंकि वो फिल्म बहुत मेहनत और लगभग 200-300 करोड़ की लागत से बनी है । लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि उत्तराखंडी फिल्मों से इतनी दूरी और बेरुखी क्यों? क्यों उत्तराखंडी फिल्मों के लिए भी आप सभी बेसब्री से इंतजार नहीं करते? क्यों नहीं उसके लिए भी सिनेमाघरों में टूट पड़ते, क्यों नहीं उत्तराखंडी फिल्मों को भी आज सलमान खान और आमिर खान की फिल्मों की तरह हाउसफुल करते ।अब अपने सवाल का मैं ही जवाब देता हूँ कि आखिर ऐसी दीवानगी उत्तराखंड की फिल्मों के लिए क्यों नहीं होती । कयोंकि ज्यादातर लोगों को अपनी बोली भाषा ना बोलनी आती है और ना समझ में आती है। अगर थोड़ी बहुत आती भी है तो उसे बोलने में हीन भावना का अहसास होता है और सबसे बड़ा कारण है, जो कि सभी लोग बोलते हैं कि उत्तराखंडी फिल्मों में मजा नहीं आता क्योंकि वे तकनीकी रूप से बॉलीवुड और हॉलीवुड की टक्कर की नहीं बनती हैं तो क्यों हम अपने 50 -100 रुपये बरबाद करें? उससे अच्छा है कि हम इतने पैसे में बॉलीवुड या हॉलीवुड की फिल्मों को देखें ।

ये सोचना अपनी जगह सही भी है, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि आखिर क्या वजह है कि हमारी फिल्में बॉलीवुड की टक्कर की नहीं बनतीं।उसकी सबसे बड़ी वजह है बजट । बड़ी हिंदी फिल्में लगभग 100-200 करोड़ की लागत से बनती हैं जो कि पूरे देश में और विदेश में एकसाथ लगभग 6 -7 हजार सिनेमाघरों में लगती हैं और एक हफ्ते में ही 200-300 करोड़ कमा लेती हैं, जिसमें लागत के साथ-साथ लाभ भी अच्छा खासा मिलता है। इसलिए वे लगातार अच्छी और तकनीकी रूप से हमसे बेहतर फिल्में बनाते हैं । परंतु हमारी फिल्मों का बजट हिंदी फिल्मों के बजट की अपेक्षा लगभग न के बराबर होता है लगभग 40-50 लाख तक। अब कहां 100-200 करोड़ और कहां 40-50 लाख यानी कि सिर्फ आधा परसेंट से भी कम। मतलब जो चीज 50 पैसे की होगी उसकी क्वालिटी 100-200 रुपये की चीज के बराबर कभी भी नहीं हो सकती। फिर दूसरी बात हिंदी फिल्में जहां 6-7 हजार सिनेमाघरों में एक साथ लगती हैं वहीं हमारी फिल्म उत्तराखंड में सिर्फ 6-7 सिनेमाघरों में लगती हैं, क्योंकि पहाड़ों में सिनेमाघर हैं ही नहीं और गढ़वाल- कुमाऊँ की भाषा का जो अंतर है, रही सही कसर वह पूरी कर देता है। तीसरा, जहाँ हिंदी फिल्में पूरी दुनिया में एकसाथ लगती हैं, वहीं हमारी फिल्में 1-1 कर हर शहर में घूम घूम कर लगानी पड़ती है, जिसके लिए हर शहर में बार-बार प्रचार प्रसार करना पड़ता है। हर जगह बार-बार पैसा खर्च करना पड़ता है और हर जगह सिनेमाघरों का बहुत ज्यादा किराया देना पड़ता है और उनकी मनमानी भी सहनी पड़ती है। जिसमें ज्यादातर शहरों के सिनेमाघरों का किराया और प्रचार प्रसार का ही खर्चा नहीं निकल पाता तो फिल्म की लागत कैसे निकलेगी। अब आप लोग ही सोचिए कि हमारी फिल्मों और बॉलीवुड की फिल्मों की मेकिंग और रिलीजिंग में जमीन आसमान का अंतर है । फिर भी हम निर्माता लोग इतना कठिन परिश्रम, कठिन और विषम परिस्थिति के साथ हमारी, आपकी बोली भाषा और संस्कृति को जीवंत रखने के लिये गढ़वाली,कुमाऊंनी,जौनसारी फिल्में बनाते हैं, क्यों ? क्या वो पागल हैं जो हानि उठा कर के भी बिना लाभ के भी इतनी मुश्किलों का सामना करके भी फिल्में बना रहे हैं, नहीं , उनको अपनी, अापकी, अपनी संस्कृति को, बोली भाषा को, आपके गांव की झलक को , आपको सिनेमा के माध्यम से दिखाना चाहते हैं, जो धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर है और अपने उत्तराखंडी फिल्मों को भी और राज्यों की फिल्मों ( भोजपुरी, मराठी, दक्षिण भारतीय, बंगाली, पंजाबी आदि) की तरह उसकी बराबरी या उससे ऊपर लाना चाहते हैं । लेकिन ये तभी संभव है जब आप हिंदी फिल्मों की तरह उत्तराखंडी फिल्मों को भी उतना ही प्यार और मान सम्मान दें, जितना हिंदी और हॉलीवुड की फिल्मों को देते हैं । हमारी फिल्मों को देखने में हीनभावना का नहीं बल्कि गर्व का अहसास कीजिये । अपना बच्चा सुंदर और बदसूरत होने के बावजूद भी हमारे लिए हमेशा सुंदर ही होता है , इसी तरह हो सकता है कि हमारी फिल्में,बॉलीवुड की फिल्मों की तरह गुणवत्ता में अच्छी न हों लेकिन हैं तो हमारी। और जब एक उत्तराखंडी फिल्म निर्माता 40-50 लाख का रिस्क ले सकता है तो क्या आप सिर्फ 70 या 100 रुपये का रिस्क नहीं ले सकते ? और अगर नहीं ले सकते हैं तो फिर उत्तराखंडी सिनेमा को विलुप्त होने से कोई नहीं बचा सकता । हमारी फिल्मों में तकनीकी रूप से बहुत कमियाँ होती हैं ये हम जानते हैं लेकिन आप हमारी फिल्मों की तुलना करोड़ों की लागत से बनी बॉलीवुड फ़िल्मों से नहीं कर सकते। तो मेरी आप सभी मित्रों, भाईयों, बहनों और बुजुर्गों से हाथ जोड़ के विनती है कि आपके शहर या गांव में कोई भी गढ़वाली,कुमाऊंनी,जौनसारी फिल्में लगें तो उसे जरूर से जरूर परिवार सहित देखें और अपने बच्चों को तो जरूर दिखायें और प्रोत्साहित करें अपनी संस्कृति और बोली भाषा के प्रति । अंत में, यदि मैंने कुछ गलत लिख दिया हो तो उसके लिए माफ कर देना। कुछ लोगों को मेरी बातें बुरी लगी होंगी, उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ, कयोंकि मैं कोई बहुत बड़ा बुद्धिजीवी नहीं हूँ । धन्यवाद !!