वैश्विक मुद्दा: सबसे बड़े विस्थापन संकट की पीड़ा झेल रहे हैं सूडानवासी

श्रुति व्यास
सूडानवासी दुनिया के सबसे बड़े विस्थापन संकट की पीड़ा झेल रहे हैं। लेकिन किसी को उनकी फिक्र नहीं है। और हो भी क्यों? क्या सूडान हमेशा से उथल-पुथल और उत्पातों के लिए जाना नहीं जाता रहा है? क्या अकारण टकरावों में उलझे रहना ही इस अफ्रीकी देश की किस्मत नहीं है?
सूडान पश्चिमी ताकतों की प्राथमिकता की सूची में हमेशा से बहुत नीचे रहा है। शक्तिशाली पश्चिमी नेताओं की इस देश में न के बराबर रुचि है। वे या तो प्रतिबंध लगाकर उसे दुनिया से अलग-थलग कर देते हैं, या फिर, जैसा कि उन्होंने क्रांति के बाद किया, जल्दबाजी में और बिना सोचे-विचारे आपस में लड़ रहे दो सशस्त्र पक्षों को समझौते के लिए बाध्य करते हैं। नतीजा यह कि सूडान फिर एक ऐसा देश बन जाता है, जिसमें सशस्त्र संघर्ष जारी रहते हैं और सत्ता चंद हाथों में केंद्रित रहती है।
मगर सूडान की ओर ध्यान देना जरूरी है। सूडान अफ्रीका के सबसे बड़े देशों में से एक है। उसके पास लाल सागर का मनोरम तटीय इलाका है, नील नदी के किनारे उपजाऊ जमीन है और ऐसी सांस्कृतिक और नस्लीय विविधता है जो उसे अरब और अफ्रीकी संस्कृतियों का मिलनस्थल बना सकती है। सूडान पर हमेशा से गिने-चुने लोगों का राज रहा है जो न तो सत्ता और न ही संसाधन किसी दूसरे से साझा करने में विश्वास रखते हैं। आज सत्ता को लेकर चल रही खींचातानी का नतीजा वहां की जनता को भुगतना पड़ रहा है। वहां के लोगों को कयामत जैसे हालातों का सामना करना पड़ रहा है।

सन् 2023 में शुरू हुए युद्ध में अब तक हजारों लोग मारे जा चुके हैं, दसियों लाख अपने घर छोडऩे को बाध्य हुए हैं, और शहर के शहर बरबाद हो गए हैं। हत्याएं, यंत्रणा, दुष्कर्म, अकाल, बीमारियां– इस देश के लोगों ने क्या नहीं झेला है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इन हालातों को “हाल के इतिहास की सबसे सबसे भयावह मानवीय आपदा” बताया है, जिससे लगभग ढाई करोड़ लोग पीडि़त हैं।
सन् 1965 में स्वतंत्र होने के बाद से ही सूडान में गृहयुद्ध एवं तख्तापलट का लम्बा सिलसिला चल रहा है। पिछले वर्ष वहां की सेना (एसएएफ) और एक अर्धसैनिक बल रैपिड सपोर्ट फोर्स (आरएसएफ) के बीच सशस्त्र टकराव शुरू होने से एक और गृहयुद्ध प्रारंभ हो गया। दोनों के बीच संबंध कभी अच्छे नहीं थे। मगर तानाशाह राष्ट्रपति उमर अल-बशीर का दोनों पर नियंत्रण था और इसलिए वे खुलकर एक दूसरे से नहीं भिड़े। फिर एक जन आंदोलन के कारण अल-बशीर का तख्तापलट हो गया। कुछ समय तक सेना और आरएसएफ ने एक-दूसरे के साथ सत्ता साझा की मगर फिर दोनों ने तय किया कि एकछत्र राज के बिना उनका काम नहीं चलने वाला है।
राजधानी खार्तूम पर आरएसएफ का कब्जा हो गया है, जो देश के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है। देश के अन्य हिस्सों पर भी उसका नियंत्रण कायम होता जा रहा है। नागरिकों को लूटा जा रहा है, उन पर हमले हो रहे हैं और उनकी हत्याएं की जा रही हैं। आरएसएफ पर यह आरोप भी है कि उसने दारफुर में अश्वेत अफ्रीकियों का पूरी तरह सफाया करने का प्रयास किया। नस्लीय सफाई का यह आरोप विश्वसनीय है।
आरएसएफ का गठन सेना ने ही कुख्यात जंजावीड सैनिकों के बचे-खुचे दस्तों से किया था। सेना ने जंजावीड सैनिकों की मदद से दारफुर क्षेत्र में वहशी तरीके से विद्रोह को कुचला था। मगर अब सेना द्वारा गठित आरएसएफ, उसी के लिए भस्मासुर बन गया है।
दोनों पक्षों पर नागरिकों से लूटपाट और दुष्कर्म करने और लोगों की जान लेने और मानवीय सहायता पहुंचाने में बाधा डालने के आरोप हैं। कुछ इलाके पूरी तरह से शेष देश से कट गए हैं और वहां मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ज़रूरी चीजें पहुंचाना भी संभव नहीं रह गया है। सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में रहने वाले जिंदा रहने के लिए पत्तियां और बीज खाने को बाध्य हैं।
हिंसा के चलते दसियों लाख सूडानियों को अपने घर छोडऩे पड़े हैं। दुनिया के हर आठ में से एक आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति (ऐसे लोग, जिन्हें अपने घरों से पलायन करना पड़ा लेकिन जिन्होंने अपना देश नहीं छोड़ा है) सूडान में हैं, जिससे यह अपनी तरह का विश्व का सबसे भीषण संकट बन गया है। अब लोग सूडान की सीमा पार कर दूसरे देशों में भी जा रहे हैं।
पड़ोसी चाड की सरकार के अनुसार इस वर्ष के अंत तक लगभग दस लाख शरणार्थी सूडान से चाड पहुंच सकते हैं। देश की सीमा पर पहुंचने वालों की बढ़ती संख्या के लिए खाने की व्यवस्था करना चाड के लिए चुनौतीपूर्ण बन गया है और वहां हाल में देशव्यापी ‘खाद्य एवं पोषणहार आपातकाल’ लगा दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रपट में भविष्यवाणी की गई है कि सूडान में आर्थिक संकुचन पिछले दशक में सीरिया एवं यमन में हुए संकुचन से दो गुना अधिक होगा।
युद्ध की शुरुआत के समय सूडान अंतरराष्ट्रीय खबरों की सुर्खियों में रहा। यह पश्चिम एवं अन्य देशों की गहन चिंता का विषय था। लेकिन आज एक साल बाद सूडान का संकट केवल उसका अपना संकट बनकर रह गया है। कोई उसके बारे में बात नहीं करता, किसी को उसकी परवाह नहीं है। सारी दुनिया की नजरें दो अन्य बड़े युद्धों पर केंद्रित है और सूडान को भुला दिया गया है। पश्चिमी मध्यस्थों का ध्यान उन दोनों युद्धों पर केंद्रित है, और अफ्रीका के अन्य देशों के नेता या तो अपने-अपने देशों की आंतरिक समस्याओं में उलझे हैं या वे सूडान को लेकर बेफिक्र हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी सूडान से आंखे फेर ली हैं और सूडान में चल रहा युद्ध किसी को नहीं दिख रहा है। वहां के गंभीर मानवीय संकट के बावजूद उस देश को भुला दिया गया है। युद्ध के और बड़े इलाके में फैलने का खतरा भी है। इसके अलावा, संयुक्त अरब अमीरात सूडान के संकट से फायदा उठाने की कोशिश में है। वह आरएसएफ का समर्थन कर रहा है, जिससे युद्ध के और लंबा खिंचने के हालात बन रहे हैं।
सूडान पर ध्यान देने की जरूरत है। वहां की समस्याओं को हल करने की जरुरत है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारी पीढ़ी को एक ऐसी पीढ़ी के रूप में याद किया जाएगा जो एक देश की पूरी की पूरी आबादी का सफाया होते चुपचाप देखती रही।
(ये लेखक के निजी विचार हैं )